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प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद- प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर
भावार्थ इस प्रकार सम्यक् विचार कर प्रातः काल होने पर विपुल अशन पान - खादिम स्वादिम तैयार करवा कर आनंद ने अपने मित्रों तथा स्वजन संबंधियों को भोजन कराया तत्पश्चात् उनका प्रचुर पुष्प, वस्त्र, सुगंधित पदार्थ, माला एवं आभूषणों से सत्कार किया, सम्मान किया। यों सत्कार सम्मान कर उनके समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा - 'हे पुत्र ! मैं वाणिज्यग्राम नगर में मैं बहुत से राजेश्वर आदि लोगों द्वारा माननीय यावत् विचार विमर्श योग्य हूँ। अब यह श्रेयस्कर है कि तुम यह उत्तरदायित्व संभालो । अपने कुटुम्ब एवं दूसरों के लिए मेढिभूत, प्रमाणभूत एवं आधार भूत बनो ।
तब आनंद श्रमणोपासक के ज्येष्ठ पुत्र ने 'जैसी आपकी आज्ञा' यों कहते हुए अत्यंत विनय पूर्वक अपने पिता का कथन स्वीकार किया !
प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर
तए णं से आणंदे समणोवासए तस्सेव मित्त जाव पुरओ जेट्ठपुत्तं कुडुम्बे . ठवेइ, ठवेत्ता एवं वयासी 'माणं देवाणुप्पिया! तुब्भे अज्जप्पभिदं केइ मम बहूसु कज्जेसु जाव आपुच्छउ वा पडिपुच्छउ वा, ममं अट्ठाए असणं वा ४ उवक्खडेउ वा उवकरेउ वा ।
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कठिन शब्दार्थ - अज्जप्पभिड़ं आज से ही, आपुच्छउ परामर्श करे, उवक्खडेउ - तैयार करें, उवकरेउ - मेरे पास लाएं।
भावार्थ तब आनंद श्रमणोपासक ने अपने मित्र आदि ज्ञातिजनों के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में अपने स्थान पर स्थापित करके इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रियो ! आज से आप में से कोई भी मुझे बहुत से कार्यों यावत् परस्पर के व्यवहारों के संबंध में कुछ न पूछे और न ही परामर्श करें। मेरे लिए अशनादि तैयार न करें और न ही मेरे पास लाएं।
तए णं से आणंदे समणोवासए जेट्ठपुत्तं मित्तणाई आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता वाणियगामं णयरं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव कोल्लाए सण्णिवेसे जेणेव णायकुले जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जइ, पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारयं संथरइ, दब्भसंथारयं दुरूह,
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पूछे, पडिपुच्छउ
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