SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५ प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - उपासक प्रतिमा *4-10-08-2-8-12-08-00-00-00-0-0-0-0-0-00-00-00-00-0-0-0-0-0----------------------- उपासक प्रतिमा (११) तए णं से आणंदे समणोवासए उवासगपडिमाओ उवसम्पजित्ता णं विहरइ। पढमं उवासगपडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्वं सम्मं काएणं फासेइ पालेइ सोहेइ तीरेइ कित्तेइ आराहेइ। तए णं से आणंदे समणोवासए दोच्चं उवासगपडिमं, एवं तच्चं चउत्थं पंचमं छटुं सत्तमं अट्ठमं णवमं दसमं एक्कारसमं जाव आराहेइ। ... कठिन शब्दार्थ - उवासगपडिमाओ - उपासक प्रतिमाएं, अहासुत्तं - यथाश्रुत-शास्त्र के अनुसार, अहाकप्पं - अथाकल्प - प्रतिमा के आचार या मर्यादा के अनुसार, अहामग्गं - यथामार्ग-विधि या क्षायोपशमिक भाव के अनुसार, अहातच्वं - यथातत्त्व-सिद्धान्त के अनुरूप, तथ्यानुसार, सम्म - सम्यक् रूप से, काएणं - काया से, फासेइ - स्पर्शना की, पालेइ - पालन किया, सोहेइ - शोधन किया-अतिचार रहित अनुसरण कर उसे शोधित किया अथवा गुरु भक्ति पूर्व अनुपालन द्वारा शोभित किया, तीरेइ - तीर्ण किया - आदि से अन्त तक अच्छी तरह पूर्ण किया, कित्तेइ - कीर्तित किया - सम्यक् परिपालन द्वारा अभिनन्दित किया, आराहेइ - आराधित किया, आराधना की। भावार्थ - आनन्द श्रमणोपासक ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं को ग्रहण किया। प्रथम प्रतिमा की सूत्रानुसार, कल्पानुसार, मार्गानुसार, तथ्यानुसार सम्यक् रूप से काया से स्पर्शना की, पालन किया, शोधन किया, तीर्ण किया, कीर्तन किया, आराधना की। प्रथम प्रतिमा की स्पर्शना यावत् आराधना के बाद दूसरी यावत् तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमा की आराधना की। विवेचन - प्रतिमा का अर्थ है - ‘अभिग्रह विशेष, नियम विशेष।' श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं कही गई हैं - . १. दर्शन प्रतिमा - इसमें श्रावक का सम्यग्-दर्शन विशेष शुद्ध होता है। निर्दोष - निरतिचार और आगार-रहित पालन किया जाता है। वह लौकिक देव और पर्वो की आराधना नहीं करता और निर्ग्रन्थ-प्रवचन को ही अर्थ-परमार्थ मान कर शेष को अनर्थ स्वीकार करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy