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________________ [7] के लिए गया। आनंद श्रावक की तरह कामदेव ने भी श्रावक के व्रत अंगीकार किये। एक दिन वह अपनी पौषधशाला में पौषध करके धर्म ध्यान में रत था। अर्द्ध रात्रि के समय एक मिथ्यादृष्टि देव पिशाच का भयंकर रूप बना कर कामदेव श्रावक को अपने पौषधोपवास आदि व्रतों से विचलित करने का प्रयास किया। किन्तु वह निर्भय होकर धर्म ध्यान में स्थिर रहा। इसके बाद उस देव ने हाथी का रूप बनाया और कामदेव श्रावक को अपनी सूंड में उठाकर आकाश में फेंका, वापिस आकाश से गिरते हुए कामदेव श्रावक को अपने तीक्ष्ण दांतों में झेल कर फिर पृथ्वी पर डाल कर अपने पैरों से तीन बार कुचला। इस वेदना से भी जब कामदेव श्रावक विचलित नहीं हुआ तब उस पिशाच ने महाकाय सर्प का रूप धारण करके कामदेव श्रावक के शरीर में डंक मारे। इतने पर भी कामदेव श्रावक निर्भय होकर धर्मध्यान में दृढ़ रहा। उसके परिणामों में जरा भी फर्क नहीं आया तो पिशाच हार कर अपने असली देव रूप में प्रकट हुआ और कहने लगा-अहो कामदेव श्रमणोपासक! तम धन्य हो. तम्हारा जन्म सफल है। हे देवानप्रिय! एक समय शक्रेन्द्र महाराज ने चौरासी हजार सामानिक देवों व अन्य देवों के सामने आपकी दृढ़धर्मिता की प्रशंसा की। शक्रेन्द्र महाराज के कथन पर मुझे विश्वास नहीं हुआ। इसलिए परीक्षा लेने के लिए मैं यहाँ आया और तुम्हें अनेक प्रकार के उपसर्ग, परीषह उत्पन्न कर कष्ट पहुँचाया। पर आप विचलित नहीं हुए। शक्रेन्द्र महाराज ने आपकी दृढ़ता की जैसी प्रशंसा की वास्तव में आप वैसे ही है। मैंने जो आपको कष्ट पहुँचाया उसके लिए मुझे क्षमा कीजिये। आगे से ऐसा कभी नहीं करूँगा। ऐसा कह कर देव दोनों हाथ जोड़कर कामदेव श्रावक के पैरों में गिर पड़ा। ____ एक समय भगवान् ग्रामानुग्राम विचरते हुए चम्पानगरी पधारे। कामदेव श्रावक भगवान् के दर्शन करने गया। भगवान् ने निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को सम्बोन्धित करते हुए कामदेव श्रावक को देव द्वारा एक ही रात्रि में दिये हुए तीनों उपसर्गों को बताया और कहा - एक गृहस्थ श्रावक भी देव द्वारा दिये गये उपसर्गों को समभाव से सहन करता हुआ धर्म में दृढ़ रहता है तो श्रमण निर्ग्रन्थों को तो ऐसे उपसर्गों को सहन करने के लिए कितना तत्पर रहना चाहिये ? भगवान् की इस बात को सब निर्ग्रन्थों ने विनय पूर्वक स्वीकार की। इसी प्रकार चुलंनीपिताजी श्रावक, सुरादेवजी श्रावक, चुलशतकजी श्रावक तथा सकडालजी श्रावक ने भगवान् से श्रावक के बारहव्रत स्वीकार किये एवं उन्हें भी पौषधव्रत की आराधना करते हुए मिथ्यादृष्टि देव द्वारा उपसर्ग एवं परीषह दिये गये। पर वे श्रमणोपासक कामदेव श्रावक की भांति पूर्णरूपेण आये उपसर्गों पर उत्तीर्ण नहीं हो सके। चूलनीपिताजी श्रावक ने पुत्रों की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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