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________________ (8) *8-0-0-0-00-00-00-00-00-00-00-00-14-0-0-0-0-10-02-0-0-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-0-0-00-00-00-02 घोरतम हत्या का आघात सहन कर लिया। किन्तु अपनी माता की हत्या का प्रसंग उपस्थित होने से विचलित हो गये। इसी प्रकार सुरादेव जी श्रावक अपने तन में भयंकर रोगों की उत्पत्ति होना जानकर, चुल्लशतकजी श्रावक धन के विनाश से एवं सकडाल जी श्रावक अपनी धर्म सहायिका की हत्या के भय से विचलित हुए। पर विचलित होकर भी उन्होंने देव की मांग के अनुसार धर्म छोड़ने का विचार नहीं किया। न ही उन्होंने उपसर्ग न देने की उनसे प्रार्थना ही की और वे तुरन्त संभल गये। कुंडकोलिकजी श्रावक ने तो अपनी तर्क शक्ति और विमल बुद्धि के बल पर देव से वार्तालाप कर उसे पराजित कर दिया। जिसकी सिद्धान्तरक्षणी विमल बुद्धि के लिए स्वयं प्रभु महावीर ने उन्हें धन्यवाद दिया 'धण्णेसि णं कुण्डकोलिया। इसके अलावा श्रमणोपासक सकडालजी की दृढ़धर्मिता तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विशेष उपादेय है। जिस सकडालजी ने अपने जीवन के लम्बे काल तक जिस गोशालक को गुरु ही नहीं बल्कि उन्हें भगवान् के रूप में मानता रहा। पर ज्यों ही भगवान् महावीर का सम्पर्क हुआ और सत्य धर्म को समझ कर श्रावक के व्रतों को स्वीकार कर लिया। इसके बाद तो अपने पूर्व गुरु के घर आने पर उसको वंदन नमस्कार करना तो दूर बल्कि उसके आने पर पीठ फेर कर बैठ गया। वह व्यवहार गोशालक के लिए कितने खटकने वाला होगा। आजकल के लोग सकडालजी श्रावक के इस बदले हुए व्यवहार को कट्टर सम्प्रदायवादी एवं सभ्यता के विरुद्ध कह सकते हैं पर गहराई से चिंतन मनन करे तो सकडालजी का श्रावक व्यवहार अपने पूर्व गुरु गोशालक के साथ उचित ही लगता है। क्योंकि जब तक व्यक्ति सही स्थिति को नहीं समझता है तब तक ही वह कुगुरुओं के चक्कर में पड़ा रहता है। जब उसे यह पता चल जाता है कि ये कुगुरु स्वयं डूबने का कार्य कर रहे हैं तो मुझे कैसे तिरायेंगे? अतएव सुज्ञ श्रावक वर्ग को आदर्श श्रमणोपासक सकडालजी का उदाहरण सामने रखकर कुगुरुओं के सम्पर्क से अपना पिण्ड छुड़ा लेना ही उनके लिए हितकारक है। महाशतकजी श्रमणोपासक का अध्ययन हमें प्रेरणा देता है कि सत्य होते हुए श्रावक को अप्रिय वचन नहीं बोलना चाहिये। महाशतकजी श्रावक पौषधशाला में संलेखना करके बैठा हुआ उस समय उनकी पली कामोन्मत्त होकर श्रमणोपासक को कामभोगों के लिए आमन्त्रित करने लगी तो श्रावकजी को क्रोध आ गया और उन्होंने अवधिज्ञान से उपयोग लगा कर रेवती से कहा - 'तू सात दिन के भीतर-भीतर अलसक (विषूचिका) रोग से पीड़ित होकर आर्तध्यान करती हुई काल धर्म को प्राप्त हो जावेगी।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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