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प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - व्रतों के अतिचार
अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ६ पृ० ८०२ पर लिखा है कि -
'वनविषयं कर्म वनकर्म। वनच्छेदनविक्रयरूपे। यच्छिन्नामच्छिन्नानाम् च तरूखण्डानां पत्राणां पुष्पाणां फलानां च विक्रयणं वृत्तिकृतेन। छिन्नाछिन्न पत्रपुष्पफल-कंदमूलतृणकाष्ठकं वा वंशादिविक्रयः।'
३. शकट-कर्म - सवारी या माल ढोने के सभी तरह के वाहन व उसके पुर्जे बनाने का कार्य ‘शकट कर्म' है। यथा - रेल, मोटर, स्कूटर, साइकिल, ट्रक, ट्रेक्टर आदि बनाने के कारखाने। लुहार, सुनार आदि द्वारा गाड़ियाँ बनाना आदि।
४. भाटी-कर्म - बैल, घोड़े, ऊँच, मोटर आदि को भाड़े पर चलाना भाटी-कर्म है।
५. स्फोटक-कर्म - पृथ्वी, वनस्पति आदि फोड़ना फोड़ी-कर्म है। यथा - खान, कुआँ, बावड़ी, तालाब आदि खोदना, पत्थर निकालना, खेती के लिए जमीन की जुताई, धान का आटा या मूंग, उड़द, चने आदि की दाल बनाना, शालि से भूसा उतार कर चावल बनाना आदि कार्यों को मुख्य रूप से फोडी-कर्म में गिना गया है। यहाँ गंभीरता से समझने की बात यह है कि खेती की पूर्ववर्ती क्रियाएं पृथ्वी पर हल योजना आदि तथा पश्चाद्वर्ती क्रियाएँ गेहूँ आदि का आटा या मूंग आदि की दाल बना कर देना या बेच कर आजीविका चलाना स्फोटक कर्म के अन्तर्गत हैं। जुताई के बाद निष्पत्ति की मध्यवर्ती क्रियाएँ वन-कर्म में मानी गई है। अतः खेती केवल स्फोटक कर्म ही नहीं, वन-कर्म भी है। यह बात पूर्वाचार्यों ने स्पष्ट बतलाई है।
६. दंत-वाणिज्य - मुख्य अर्थ में हाथी-दाँत का व्यापार, उपलक्षण से ऊंट, बकरी, भेड़ आदि की जट-ऊन, गाय-भैंसादि का चमड़ा, हड्डियाँ, नाखून आदि त्रस जीवों के अवयव का व्यापार ‘दंत-वाणिज्य' में गिना गया है। ___७. लाक्षा-वाणिज्य - लाख का व्यापार मुख्य अर्थ में लिया गया है। मेनशील, 'धातकी, नील, साबुन, सज्जी, सोड़ा, नमक, रंग आदि का व्यापार भी ‘अभिधान राजेन्द्र कोष' भाग ६, पृ० ५६६-६७ पर लाक्षा-वाणिज्य में लिए गए हैं।
८. रस-वाणिज्य - ‘अभिधान राजेन्द्र' भाग ६, पृ०४६३ 'मधुमद्यमांसभक्षणवसामज्जादुग्धदधिघृततेलादिविक्रये। शहद, शराब, मांस, चर्बी, मक्खन, दूध, दही, घी, तेल आदि का व्यापार करना रस-वाणिज्य में गिना गया है। कोई-कोई गुड़, शक्कर के व्यापार को भी इसमें मानते हैं। ___६. विष-वाणिज्य - सोमल आदि भांति-भांति के जहर, बंदूक, कटार आदि अस्त्र
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