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श्री उपासकदशांग सूत्र 9-08-0-0-0-08-08-10-08-08-12-12-08-19-12----------------------0-00-00-00-00
कठिन शब्दार्थ - अभिगयजीवाजीवेणं - जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता, अणइक्कमणिजेणं - अनतिक्रमणीय-विचलित नहीं किया जा सके, सम्मत्तस्स - सम्यक्त्व के, पंच - पांच, अइयारा - अतिचार, पेयाला - प्रधान, जाणियव्वा - जानने योग्य, ण समायरियव्वा - आचरण करने योग्य नहीं, संका - शंका, कंखा - कांक्षा, विइगिच्छा. - वितिगिच्छा-विचिकित्सा, परपासंडपसंसा - पर पाषण्ड प्रशंसा, परपासंडसंथवो - पर पाषण्ड संस्तव।
भावार्थ - आनन्द श्रमणोपासक को सम्बोधित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया - 'हे आनन्द! जीव-अजीव आदि नव तत्त्व के ज्ञाता एवं देव-दानवादि से भी समकितच्युत नहीं किए जा सकने योग्य श्रमणोपासक को सम्यक्त्व के प्रधान पांच अतिचार जानने योग्य तो हैं, परन्तु आचरण करने योग्य नहीं हैं। यथा - १. शंका २. कांक्षा ३. विचिकित्सा ४. . परपाषंड प्रशंसा ५. परपाषंड संस्तव।'
विवेचन - अतिचार - अभिधान राजेन्द्र कोश भाग १ पृ० ८ पर अतिचार शब्द के . कुछ अर्थ इस प्रकार दिये हैं - ग्रहण किए हुए व्रत का अतिक्रमण, उल्लंघन, चारित्र में स्खलना, व्रत में देश-भंग के हेतु आत्मा के अशुभ परिणाम विशेष।
सम्यक्त्व के पांच अतिचार इस प्रकार हैं -
१. शंका - जिनेन्द्र-प्ररूपित निर्ग्रन्थ-प्रवचन के विषय में संशय-वृत्ति रखना - 'यह ऐसा है या वैसा है' आदि।
२. कंखा - कांक्षा - मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से अन्य दर्शनों को ग्रहण करने की इच्छा - 'कंखा अन्नान्नदंसणग्गहो।'
३. विइगिच्छा - विचिकित्सा - धर्मकृत्यों के फल में संदेह करना। साधु के मलीन वस्त्रादि उपधि देख कर घृणा करना।
४. परपासंडपसंसा - यहाँ 'पासंड शब्द का अर्थ 'व्रत' से है। सर्वज्ञ प्रणीत अर्हत् दर्शन से बाहर रहे परदर्शनियों की स्तुति, गुण-कीर्तन आदि करना।'
५. परपासंडसंथव - परपाषण्डियों के साथ आलाप-संलाप, शयन, आसन, भोजन आदि परिचय करना परपाषंडसंस्तव कहलाता है।
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