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________________ प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - व्रतों के अतिचार अनर्थ-निष्प्रयोजन बिना कारण व्यर्थ ही फालतू में दण्ड-सज्जा, पीड़ा, कष्ट। बिना प्रयोजन के आत्मा को दण्डित करने के सभी कार्य अनर्थदण्ड हैं। तंजहा - वे इस प्रकार हैं - अवज्झाणायरियं - अपध्यानाचरण, पमायायरियं - प्रमादाचरण, हिंसप्पयाणं - हिंस्रप्रदान, पावकम्मोवएसे - पाप कर्मोपदेश। भावार्थ - तदन्तर आठवें व्रत में आनंद श्रमणोपासक चार प्रकार के अनर्थदण्ड का प्रत्याख्यान करते हैं - १. अपध्यानाचरण - आर्त-रौद्र आदि बुरे ध्यान का आचरण नहीं करूँगा। २. प्रमादाचरण - प्रमाद का सेवन नहीं करूँगा। ३. हिंस्रप्रदान - हिंसा में प्रयुक्त होने वाले उपकरण प्रदान नहीं करूँगा। ४. पापकर्मोपदेश - पाप कर्म का उपदेश नहीं दूंगा। विवेचन - शिक्षा-व्रतों के लिए श्रावक का यह मनोरथ रहता है कि 'ऐसी मेरी श्रद्धा प्ररूपणा तो है, फरसना करूँ तब शुद्ध होऊँ।' सामायिक कभी कम बने, ज्यादा बने, नहीं बने, चौदह नियम आदि कभी चितारे, कभी याद नहीं रहे, दया-पौषध का अवसर कभी हो, कभी न हो तथा अतिथि-संविभाग व्रत की स्पर्शना भी साधु-साध्वी का योग मिलने पर संभव है। अतः संभवतः आनन्दजी के चारों शिक्षा-व्रतों का उल्लेख यहाँ नहीं हो पाया हो। वैसे तो उन्होंने अमुक प्रकार से शिक्षाव्रत भी ग्रहण किए ही होंगे, तभी उन्हें 'बारह व्रतधारी' कहा गया है। आनन्दजी की व्रत-प्रतिज्ञाओं के बाद भगवान् उन्हें व्रतों के अतिचार बदलाते हैं। व्रतों के अतिचार (२१) सम्यक्त्व के अतिचार इह खलु आणंदाइं!' समणे भगवं महावीरे आणंदं समणोवासगं एवं वयासी"एवं खलु आणंदा! समणोवासएणं अभिगयजीवाजीवेणं जाव अणइक्कमणिजेणं सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा ण समायरियव्वा, तंजहा - संका, कंखा, विइगिच्छा, परपासंडपसंसा, परपासंडसंथवो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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