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________________ प्रथम अध्ययन श्रमणोपासक आनंद Jain Education International - - स्थूल प्राणातिपात (हिंसा) - शिकार करने की वृत्ति से पंचेन्द्रिय हिंसा, मांसाहार के लिये पंचेन्द्रिय हिंसा, निष्प्रयोजन कुतूहलवृत्ति, चंचलवृत्ति अथवा हिंसक क्रूर परिणामों से संकल्पपूर्वक त्रस जीवों की अर्थात् बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा, क्रोध आदि कषाय वश होकर अल्पमत अपराधी या निरपराधी छोटे बड़े किसी त्रस जीवों की हिंसा आदि स्थूल हिंसा के कार्य हैं। इस प्रकार की हिंसा का प्रथम अणुव्रती श्रावक के त्याग होता है। व्रत- ग्रहण शेष हिंसा गृहस्थ जीवन का निर्वाह करते, शरीर और परिवार के निर्वाह के लिए जो गृहकार्य अथवा व्यापार अथवा वाहनों के द्वारा गमनागमन होता है, जिसमें स्थावर अथवा त्रस जीवों की हिंसा हो जाती है। स्वयं के अथवा स्वयं के आश्रित जीवों की सुरक्षा उपचार आदि में त्रस जीवों की हिंसा होती है । आक्रमण करते हुए जीवों का सामना करने के लिए हिंसा होती है। स्वयं के प्राणों की अथवा सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए जीव रक्षा का प्रयत्न करते हु भी किसी जीव की हिंसा हो जाती है आदि प्रसंगों में जो हिंसा होती है वह उपरोक्तव्रत में सूचित स्थूल हिंसा में समाविष्ट नहीं होती वह अवशेष हिंसा है, जिसका श्रावक को आगार होता है। करण और योग करना, कराना और अनुमोदन करना, ये तीन करण हैं अर्थात् हिंसादि पाप कार्य स्वयं करना, दूसरों को आदेश देकर हिंसा करवाना और हिंसा करने वालों का . अनुमोदन करना, हिंसा को अच्छा समझना । मन, वचन और काया ये तीन योग हैं अर्थात् किसी भी कार्य को करने के ये तीन साधन हैं। इन तीन योगों से करना, कराना, अनुमोदन आदि क्रिया होती है। मन से १. पाप कार्य करने का स्वयं संकल्प करना २. मन में ही अपने अधीन व्यक्ति को पाप कार्य करने की प्रेरणा करनी, आदेश देना ३. मन में ही जो कोई पाप कार्य किया उसे अच्छा मानना, देख कर अथवा सुनकर अत्यंत खुश होना । यहाँ मन से करने कराने में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि और तंदुलमच्छ का दृष्टान्त उपयुक्त है। मन से कार्य करने कराने का निर्णय करना । मन में ही मंत्र स्मरण से हिंसा प्रवृत्ति स्वयं की जा सकती है और मंत्र द्वारा दूसरों से हिंसा कराई भी जा सकती है। वचन से १. पापं कार्य का संकल्प और निर्णय वचन से प्रकट करना, मंत्रोच्चारण आदि द्वारा किसी की हिंसा करना २. हिंसा आदि कार्यों का वचन से आदेश देना, प्रेरणा करना ३. हिंसा का कार्य करने वाले की वचन से प्रशंसा करना अथवा धन्यवाद देना । १६ For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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