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१८
श्री उपासकदशांग सूत्र **-10-08-10-18-28-10-08-29-0--12-12-12-22-10-19-10-08-08-8-2--28-12-12--08-18-19-19-12-08-08-28-48-12-10-22-10-100 शक्ति सामर्थ्य संयम लूं - वैसी नहीं लगती है। आपने जो श्रावक धर्म फरमाया जिसकी गृहस्थावस्था में रहते हुए भी आराधना संभव है ऐसे पांच अणुव्रत एवं सात शिक्षाव्रत रूप द्वादशविध श्राद्ध धर्म को मैं आप से ग्रहण करूँगा।"
यह सुन कर भगवान् ने कहा - "हे देवानुप्रिय! सर्वविरति रूप प्रत्याख्यान को आवरण करने वाली कषाय की तीसरी चौकड़ी का जब तक क्षयोपशम न हो तब तक चारित्रमोह संयम में बाधक होता है। तुम श्रावक व्रत धारण करने व पालने के सुयोग्य पात्र हो। मैं तुम्हें श्रावक व्रत अंगीकार करवाऊँगा। धर्मानुष्ठान में किसी प्रकार की रुकावट रूप प्रतिबंध नहीं करना है।" ___ भगवान् के द्वारा आज्ञापित अनुज्ञापित होने से आनंद गाथापति की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि के बाद वे द्वादश श्रावक धर्म को क्रमशः इस प्रकार अंगीकार करते हैं।
व्रत-ग्रहण
(५)
१. अहिंसा व्रत तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए तप्पढमयाए थूलगं पाणाइवायं पच्चक्खाइ, 'जावजीवाए दुविहं तिविहेणं ण करेमि ण कारवेमि मणसा वयसा कायसा'१। __कठिन शब्दार्थ - तप्पढमयाए - प्रथम, थूलगं - स्थूल, पाणाइवायं - प्राणातिपातहिंसा का, पच्चक्खाइ - प्रत्याख्यान-त्याग किया, दुविहं - दो करण, तिविहेणं - तीन योग से, ण करेमि - नहीं करता हूँ, ण कारवेमि - नहीं कराता हूँ, मणसा - मन से, वयसा - वचन से, कायसा - काया से।
भावार्थ - तव आनन्द गाथापति श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से प्रथम व्रत में स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करते हैं - मैं यावजीवन दो करण तीन योग से अर्थात् मन, वचन, काया से स्थूल प्राणातिपात-स्थूल हिंसा का सेवन नहीं करूँगा और न करवाऊँगा।
विवेचन - संसारी जीवों के मुख्य दो भेद हैं - त्रस और स्थावर। स्थूल प्राणातिपात विरमण में श्रावक निरपराधी त्रस जीवों की जान बूझ कर संकल्प पूर्वक हिंसा का त्याग करता हूँ।
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