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प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - आनंद की प्रतिक्रिया १७ **-*-*-*-*-10-16-10-08-08-0-0-0-0-0-0-10-0-0-0-14-08-19-08-00-00-00-00-10-0-0-----*-*-*--*-* द्वादशविध, गिहिधम्म - गृहस्थ धर्म-श्रावक धर्म को, पडिवजिस्सामि - स्वीकार करूँगा, अहासुहं - जैसा सुख हो, देवाणुप्पिया - देवानुप्रिय, मा - मत, पडिबंध - प्रतिबंध - प्रमाद-विलम्ब, करेह - करो।
. भावार्थ - तब आनन्द गाथापति श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से धर्म का श्रवण कर हर्षित एवं परितुष्ट होता हुआ यावत् इस प्रकार बोला - हे भगवन्! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा है, निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रतीति-विश्वास है। निर्ग्रन्थ प्रवचन मुझे रुचिकर है। यह ऐसा ही है, तथ्य है, सत्य है, इच्छित है, प्रतीच्छित है, इच्छित-प्रतीच्छित है। यह वैसा ही है जैसा आपने कहा है हे देवानुप्रिय! जिस प्रकार आपके पास अनेक राजा, ऐश्वर्यशाली, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी, सेनापति एवं सार्थवाह आदि मुण्डित होकर गृहवास का परित्याग कर अनगार रूप में प्रव्रजित हुए, मैं उस प्रकार मुंडित होकर गृहस्थ जीवन का परित्याग कर अनगार धर्म में प्रव्रजित होने में असमर्थ हूँ अतः आपके पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत मूलक बारह प्रकार का श्रावक धर्म स्वीकार करना चाहता हूँ। आनंद के इस प्रकार कहने पर भगवान् ने कहा - हे देवानुप्रिय! जिससे तुमको सुख हो वैसा ही करो। धर्म कार्य में विलम्ब (प्रमाद) मत करो। - विवेचन - जिसका विवाह होता है उसके नाम से गीत गाए जाते हैं वैसे ही यद्यपि धर्मसभा में साधु साध्वी भी थे पर यहाँ आनंदजी का वर्णन प्रधान होने से यह कहा जा रहा है कि प्रभु ने आनंद गाथापति और उपस्थित जन समुदाय को वह धर्मकथा कही जो भव भव के बंधन तोड़ने वाली है, ब्रतों के द्वारा आत्मा को सुरक्षा देने वाली है, जाज्वल्य अंगारों के उष्ण- . तप्त स्पर्श में भी मन की शांति-समाधि टिका कर कैवल्य एवं निर्वाण देने वाली है। धर्म सुन कर राजा एवं परिषद् स्वस्थान को गए।
आनंद को भगवान् की अष्टादश अघमलहारिणी एवं भव जलतारिणी जिनवाणी बहुत प्रिय लगी। हर्ष एवं प्रसन्नता से खिले हुए वे श्रीचरणों में निवेदन करते हैं -
__ “हे निर्ग्रन्थनाथ! मैं आपके निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता हूँ। यह यथाकथित है, सत्य है, असत्य रहित है, यह मुझे रूचा है, बहुत बहुत प्यारा लगा है। जो बात आपने फरमाई है उसको कोई नकार नहीं सकता है, क्योंकि सत्य स्वर्ण को असत्य अग्नि जला नहीं सकती। हे महामहिम! आपश्री ने संयम भी निरूपित किया। निस्संदेह संयम ऊँचा है, अच्छा है, आपके पास बहुत से धन्य भाग राजा ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक इभ्य सेठ सेनापति सार्थवाह आदि संयम भी लेते ही हैं। मैं उन्हें शूरवीर मानता हूँ पर अभी मेरी
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