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श्री उपासकदशांग सूत्र **----0--00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-48-22-12-10-22-24-
काया से - १. शरी से स्वयं हिंसा करना २. शरीर अथवा हाथ से ईशारा करके किसी को कहे बिना हिंसा की प्रेरणा करना ३. हिंसा का काम करने वाले का हाथों से या सम्पूर्ण शरीर से अनुमोदन करना।
स्थूल दृष्टि से मन के द्वारा अनुमोदन, वचन से कराना और काया से करना - ये तीन बोल सहज और सरलता से समझे जाते हैं अन्य छह विकल्पों को समझने के लिए सूक्ष्म दृष्टिकोण से विचार करना पड़ता है। ___ भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशक ५ में श्रावक के अणुव्रत ग्रहण करने के करण और योग की अपेक्षा ४६ भंग कहे गये हैं। यहाँ आनंद श्रमणोपासक ने प्रथम अणुव्रत में दो करण तीन योग से स्थूल हिंसा का त्याग किया है।
२. सत्य व्रत तयाणंतरं च णं थूलगं मुसावायं पच्चक्खाइ, ‘जावजीवाए दुविहं तिविहेणं ण करेमिण कारवेमि मणसा वयसा कायसा'२।
कठिन शब्दार्थ - तयाणंतरं - तदनन्तर - इसके बाद, मुसावायं - मृषावाद - असत्य भाषण।
___ भावार्थ - तदनन्तर स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान करते हैं - 'मैं' यावज्जीवन दो करण तीन योग से स्थूल मृषावाद-असत्य का सेवन नहीं करूँगा, नहीं कराऊँगा, मन से, वचन से और काया से।'
विवेचन - चौथे गुणस्थान तक के जीव चारित्र के सर्वथा अभाव के कारण 'बाल' कहे जाते हैं ज्योंही कोई भी छोटा मोटा व्रत समकित सहित ग्रहण किया जाता है जीव 'बाल पंडित' की श्रेणी में आ जाता है।
पहले व्रत के ग्रहण करने के पूर्व तक शास्त्रकार ने मूल पाठ में आनंद को 'तएणं से आणंदगाहावई' आनंद गाथापति कहा है। आनंद गाथापति, पहला व्रत ग्रहण करते ही चौथे से पांचवें गुणस्थान पर आरुढ़ हो गये। अब यह कहा गया है कि आनंद श्रावक ने दूसरा व्रत ग्रहण किया। वह 'स्थूल मृषावाद प्रत्याख्यान' रूप है। दूसरे व्रत में आनंद श्रमणोपासक प्रतिज्ञा करते हैं - "मैं यावज्जीवन के लिए स्थूल (मोटे) झूठ को मन, वचन, काया से स्वयं बोलूंगा नहीं और न दूसरों से बुलवाऊँगा।"
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