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श्री उपासकदशांग सूत्र
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स्वामी थे वहाँ पहुँचा। पहुँच कर तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, वंदन नमस्कार किया यावत् पर्युपासना करने लगा।
विवेचन - 'तं महाफलं जाव गच्छामि' में निम्न सूत्रांश का ग्रहण हुआ है - "तं महाफलं खलु भो देवाणुप्पिया! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमण-वंदण-णमंसणं-पडिपुच्छण पजुवासणयाए? एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए?' .
अर्थ - अहो देवानुप्रिय! तथारूप के अरहंत भगवंतों के (महावीर आदि) नाम और (काश्यप आदि) गोत्र सुनने का भी महान् फल है, फिर उनकी सेवा में जाने, वंदना-नमस्कार करने, सुख-साता पूछने एवं पर्युपासना करने के फल का तो कहना ही क्या? उनसे एक धार्मिक वचन सुनने का भी महान्-महान् लाभ है, फिर प्रवचन सुन कर विपुल श्रुत प्राप्त करने का तो कहना ही क्या?
आनंद गाथापति ने स्नान किया और सभा में जाने योग्य वस्त्राभूषण धारण किए। यह लौकिक-व्यवहार है। स्नान का धर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। . 'सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं' का अर्थ - 'कोरंट वृक्ष के फूलों की माला को छत्र पर धारण किया' समझना चाहिए। कई जगह 'कोरंट वृक्ष के फूलों को छत्र धारण किया' - अर्थ भी देखा जाता है, पर शब्दों का अर्थ इस प्रकार है - कोरंट वृक्ष की मालाओं के समूह सहित छत्र धारण किया। 'स' शब्द यहाँ सहित का द्योतक है। _ 'आयाहिणं पयाहिणं' - का अर्थ कोई 'भगवान् के चारों ओर प्रदक्षिणा' करते हैं, पर स्थानकवासी आम्नाय 'हाथ जोड़ कर अपने अंजलिपुट से सिरसा आवर्तन' इस अर्थ को ठीक मानती है। वैसे ही भगवान् की परिक्रमा का कोई कारण ध्यान में नहीं आता।
'मझं मझेणं' का अर्थ अनेक स्थानों पर 'बीचोबीच', 'मध्य भाग से' देखा जाता है, पर वह उचित नहीं है। ‘मझं मझेणं' का बहुश्रुत-सम्मत्त अर्थ तो है - ‘राजमार्ग से गमन'। गली-कूँचों से जाना 'मज्झं मज्झेणं' नहीं है।' ___ इस सूत्र में उस समय के श्रेष्ठी वर्यों की धर्म भावना का जीवंत चित्र उपस्थित किया गया है जो आनंद की भाषा और भावना रूप से सूत्र में विस्तार से निरूपित किया है। वे श्रेष्ठी वर्य धर्मगुरुओं के दर्शन और पर्युपासना करने तथा उनके मुखारविन्द से धर्म श्रवण कर जीवन में व्रत
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