SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - आनंद का दर्शनार्थ गमन १३ आनंद का दर्शनार्थ गमन तए णं से आणंदे गाहावई इमीसे कहाए लद्धढे समाणे ‘एवं खलु समणे जाव विहरइ, तं महाफलं (जाव) गच्छामि णं जाव पज्जुवासामि' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता पहाए सुद्धप्पावेसाइं जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते पायविहारचारेणं वाणियगामं णयरं मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणामेव दूइपलासे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ जाव पजुवासई। . कठिन शब्दार्थ - इमीसे कहाए - यह वृत्तांत, लद्धढे समाणे - जानकर, एवं खलु - इस प्रकार निश्चय ही, महाफलं - महान् फल, संपेहेइ - विचार किया, पहाए - स्नान कि या, सुद्धप्पावेसाई - सभा में पहनने योग्य नए अथवा धुले हुए वस्त्रों को, अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे - अल्प-वजन में हल्के, महाघ-भावों में कीमती आभरण-गहनों से शरीर को अलंकृत किया, सयाओ - अपने, गिहाओ - घर से, पडिणिक्खमइ - निकला, सकोरटमल्लदामेणं - कौरंट-कनैर के फूलों की माला सहित, छत्तेणं - छत्र को, धरिजमाणेणं - धारण किये हुए, मणुस्सवग्गुरा परिक्खित्ते - पुरुषों के समूह से घिरे हुए, पायविहारचारेणं - पैदल ही चलते हुए, मज्झं-मज्झेणं - राजमार्ग से होते हुए। भावार्थ - तदनन्तर आनंद गाथापति ने यह वृत्तांत जान कर कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वाणिज्यग्राम नगर के बाहर द्युतिपलाश उद्यान में तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचर रहे हैं अतः मैं उनके दर्शन का महान् फल प्राप्त करूँ, ऐसा मन में विचार आया। विचार करके उसने स्नान किया, शुद्ध तथा सभा योग्य मांगलिक वस्त्र अच्छी तरह पहने। अल्पभार वाले किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। अपने घर से निकला, निकल कर कौरंट पुष्पों की माला से युक्त छत्र धारण किये हुए, पुरुषों से घिरा हुआ पैदल चल कर ही वाणिज्यग्राम नगर के राज मार्ग से होता हुआ जहाँ द्युतिपलाश चैत्य था भगवान् महावीर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy