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________________ श्री उपासकदशांग सूत्र नाम सन्निवेश - उपनगर था। वह रिद्धि-स्तमित एवं समृद्धि युक्त था यावत् प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप था। उस कोल्लाक सन्निवेश में आनंद गाथापति के मित्र, ज्ञातिजन (समान आचार विचार के स्वजातीय लोग) निजक (माता-पिता, पुत्र-पुत्री आदि) स्वजन सम्बंधी परिजन आदि निवास करते थे जो समृद्ध यावत् अपरिभूत थे अर्थात् धनवान एवं सच्चरित्र होने से किसी से दबने वाले नहीं थे। भगवान् महावीर स्वामी का पदार्पण तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए। परिसा णिग्गया। कूणिए राया जहां तहा जियसत्तू णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता जाव पजुवासइ। ___ कठिन शब्दार्थ - समणे - श्रमण - तप संयम में श्रम करने वाले, कषायों का शमन करने वाले, सुमन-अच्छा मन रखने वाले, भगवं - भगवान् - आत्मिक ऐश्वर्य से युक्त, महावीरे - कर्मक्षय में प्रचण्ड पराक्रमी, पजुवासइ - पर्युपासना करता है। भावार्थ - उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वाणिज्यग्राम नगर के द्युतिपलास चैत्य में पधारे। ठहरने के लिए यथोचित स्थान ग्रहण किया। संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विराजमान हुए। परिषद् आई। कोणिक के समान राजा जितशत्रु भी भगवान् के दर्शन वंदन के लिए निकला। यावत् पर्युपासना करने लगा। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर स्वामी के वाणिज्य ग्राम में पदार्पण, समवसरण, परिषद् का निकलना और राजा जितशत्रु के दर्शनार्थ. जाने का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। भगवान् महावीर स्वामी के विशिष्ट गुणों और प्रभु के प्रत्येक अंगोपांग का विस्तृत वर्णन उववाई सूत्र में है जिज्ञासुओं को वहाँ से देख लेना चाहिये। __यहाँ समोसरिए, परिसा णिग्गया से पाठ संक्षिप्त किया गया है इसमें भगवान् महावीर स्वामी के पदार्पण की जानकारी होना, समूह में दर्शन करने के लिए घर से एवं नगरी से निकलना आदि वर्णन है। ____ राजा जितशत्रु के घर से निकलने, भगवान् की सेवा में पहुँच कर पर्युपासना करने आदि का वर्णन उववाई सूत्र में वर्णित राजा कोणिक के भगवान् के दर्शनार्थ जाने, वंदन एवं पर्युपासना करने के समान है। अतः उववाई सूत्र का उक्त स्थल दृष्टव्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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