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________________ श्रमणोपासक आनंद - कोल्लाक सन्निवेश पांचों इन्द्रियों वाली, सुरूवा सुंदर रूप वाली, इट्ठा इष्ट- इच्छित, सद्धिं साथ में, पंचविहे - पांच प्रकार अविरक्त, सद्द शब्द, अणुरत्ता - अनुरक्त- प्रीति युक्त, अविरत्ता के, माणुस्सए - मानवीय, कामभोए - कामभोगों का, पच्चणुभवमाणी- अनुभव करती हुई। भावार्थ उस आनंद गाथापति के शिवानन्दा नामक पत्नी थी। उसकी पांचों इन्द्रियाँ अहीन - प्रतिपूर्ण - रचना की दृष्टि से अखंडित सम्पूर्ण, अपने अपने विषयों में सक्षम थी यावत् वह सर्वांगसुन्दरी थी । आनंद गाथापति की वह इष्ट- प्रिय थी। वह आनंद गाथापति के प्रति अनुरक्त - अनुरागयुक्त, अत्यंत स्नेहशील और अविरक्त (पति के प्रतिकूल होने पर भी वह कभी विरक्ता - अनुराग शून्य - रुष्ट नहीं होती ) थी। वह अपने पति के साथ इष्ट-प्रिय यावत् पांच प्रकार के सांसारिक कामभोग भोगती हुई रहती थी । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में शिवानंदा भार्या के गुणों का चित्रण किया गया है। वह शील और सौन्दर्य से युक्त थीं । यहाँ प्रयुक्त 'अविरत्ता' (अविरक्त) विशेषण पति के प्रति पत्नी के समर्पण भाव तथा नारी के उदात्त व्यक्तित्व का सूचक है। कोल्लाक सन्निवेश Jain Education International प्रथम अध्ययन - - - तस्स णं वाणियगामस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं कोल्लाए णामं सण्णवेसे होत्था, रिद्धत्थिमिय जाव पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे । तत्थ णं कोल्लाए सण्णिवेसे आणंदस्स गाहावइस्स बहुए मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणे परिवसइ, अड्ढे जाव अपरिभूए । कठिन शब्दार्थ - सण्णिवेसे - सन्निवेश-उपनगर ( कॉलोनी), रिद्धित्थिमिय - वैभवशाली सुरक्षित - गगनचुम्बी भवनों से भरपूर, स्वचक्र और परचक्र के भय से रहित, पासाईए - चित्त को प्रसन्न करने वाला, दरिसणिज्जे - दर्शनीय, अभिरूवे - अभिरूप मन को अपने में रमा सखा, मित्र, णाइ स्वजन लेने वाला, पडिवे प्रतिरूप मन में बस जाने वाला, मित्त न्याति-जाति वाले, णियग निजक माता पिता आदि, सयण बंधु-बांधव आदि, संबंधि - संबंधी - श्वसुर आदि, परिजणे - परिजन दास-दासी आदि, परिवसइ निवास करते थे । भावार्थ - - - - - For Personal & Private Use Only - ११ - - उस वाणिज्य ग्राम के बाहर उत्तर पूर्व दिशाभाग - ईशानकोण में कोल्लाक www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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