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________________ [15] माँग के अनुसार धर्म छोड़ने का तो विचार ही नहीं किया, न प्रार्थना की, न गिड़गिड़ाये। उन्होंने साहस के साथ उस पर आक्रमण कर दिया। वे उसे देव नहीं, क्रूर मानव ही समझ रहे थे। ___ गृहस्थ प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से युक्त होता है। उदयभाव की न्यूनाधिकता तो मनुष्यों में होती ही है। किसी का पुत्र पर अधिक स्नेह होता है, तो किसी का माता अथवा पत्नी पर। सुरादेवजी ने सोचा होगा कि भयंकर रोगों के उत्पन्न होने से शरीर की जो दुर्दशा होगी और आत्मा में अशांति उत्पन्न हो कर दुर्ध्यान होगा, वह साधना से पतित कर देगा। इस आशंका के मन में उत्पन्न होते ही वे विचलित हो गए, चूलशतकजी पुत्र-हत्या से नहीं, परन्तु धन-विनाश से डिगे। उन्हें धनविनाश से प्रतिष्ठा का विनाश लगा होगा और दारिद्र्य जन्य दुःखों ने डराया होगा। श्री आनन्दजी तो घर छोड़ कर अन्य स्थान की पौषधशाला में चले गए थे, कदाचित् कामदेवजी भी अन्यस्थ पौषधशाला में गये हों, शेष चूलनीपिताजी आदि अपने भवन के किसी भाग में नियत की हुई पौषधशाला में ही आराधना करते रहे। यह बात उपसर्ग के समय उनकी ललकार माता एवं पत्नी के सुनने और उनके समीप आ कर भ्रम मिटाने और शुद्धिकरण करवाने की घटना से ज्ञात होती है। दस ही क्यों ? . . भगवान् महावीर प्रभु के लाखों श्रमणोपासकों में केवल दस ही ऐसे उपासक हों और अन्य इस श्रेणी के नहीं हों, ऐसी बात नहीं है। अंतगड सूत्र के सुदर्शन श्रमणोपासक, भगवतीवर्णित तुंगिका के श्रावक एवं शंख-पुष्कलि आदि कई थे, जिनके प्रत्येक आत्म-प्रदेश में धर्म का रंग अत्यंत गाढ़-गाढ़तम चढ़ा हुआ था। इस धर्म-रंग को छुड़ाने की शक्ति किसी देव-दानव में भी नहीं थी। ___यह सूत्र ‘दशांग' होने के कारण दस अध्ययन - दस उपासकों के चरित्र - तक ही सीमित है। ये दस ही श्रमणोपासक बीस वर्ष की श्रावक र्याय, प्रतिमा आराधक, अवधिज्ञान प्राप्त प्रथम स्वर्ग में उत्पाद, चार पल्योपम की स्थिति और बाद के मनुष्यभव में महाविदेह क्षेत्र में मुक्ति पाने वाले हुए। इस प्रकार की साम्यता वाले दस श्रमणोपासकों के चरित्र को ही इस सूत्र में स्थान देना था, अतएव आगमकार ने दस चरित्र ले कर शेष छोड़ दिये। देवेन्द्र और जिनेन्द्र से प्रशंसित वे आदर्श श्रमणोपासक देवेन्द्र और जिनेन्द्र से प्रशंसित थे। कामदेव श्रावकजी की धर्मदृढ़ता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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