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________________ [14] -00-00-00--00-00-00-00-00-10-08-28-06-12-08-10-19-19-10-28-40-100-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00 "अन्ययूथिक परिगृहीतानि वा चैत्यानि" इन अक्षरों के बाद टीकाकार ने “अर्हत्प्रतिमा लक्षणानि" अक्षरों से अन्ययूथिक परिगृहीत के लक्षण के रूप में वे शब्द लिखे हैं। यदि टीकाकार के समक्ष मूल में 'अरिहंत चेइयाई' शब्द होता, तो संस्कृत रूप - "अन्ययूथिक परिगृहीतानि अर्हत् चैत्यानि" होता। इतना होने पर भी वह पक्ष जिस अभाव की पूर्ति करना चाहता था, वह नहीं हो सकी। वह अभाव तो वैसा ही रहा। आनंदजी के साधना के व्रतों और भगवान् के बताये हुए अतिचारों में ऐसा एक भी शब्द नहीं है, जो मूर्ति की वंदना-पूजा आदि का किचित् भी संकेत देता हो। उनकी ऋद्धि-सम्पत्ति का वर्णन है, भगवान् को वंदना करने जाने, व्रत ग्रहण करने, प्रतिमा आराधन आदि का जो वर्णन है, उनमें कहीं भी उनके मन्दिर जाने, मूर्ति पूजने-वंदने आदि (जिसे आज धर्म साधना का प्रमुख अंग माना जाता है) उल्लेख बिलकुल नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि उस समय जिन-प्रतिमा की पूजनादि प्रथा जैन-संघ में थी ही नहीं। न किसी श्रावक के वर्णन में है और न किसी साधु के चरित्र में। धर्म के विधि-विधानों में भी नहीं है, फ़िर एक-दो शब्द प्रक्षेप करने से क्या होता है? चरित्र हमारा मार्गदर्शक है ___ भगवान् के आदर्श उपासकों का चरित्र हमारे लिए उत्तम मार्गदर्शक है। उनकी धीरता गंभीरता, धर्म-दृढ़ता, अटूट आस्था और देव-दानव के घोर उपसर्ग को शान्ति पूर्वक सहन करने का आत्मसामर्थ्य हमारे सब के लिए अनुकरणीय है। ___ श्री आनंदजी की स्पष्टवादिता, कामदेवजी की दृढ़ता, अडिगता और सहनशीलता, कुण्डकोलिकजी की सैद्धांतिकपटुता, सकडालपुत्र जी की कुप्रावचनिक पूर्वगुरु के प्रति अवहेलनाझूठी भलमनसाहत का अभाव आदि गुण अनुमोदनीय ही नहीं, अनुकरणीय है। प्रबल शक्तिशाली भयानक दैत्य एवं पिशाच जैसे देव से भयभीत न होकर तीनों परीक्षा में उत्तीर्ण होने का श्रेय तो एकमात्र कामदेवजी को ही मिला है। उनके समक्ष देव भी पराजित हुआ। देव की सीमातीत क्रूरता भी हार गई। किन्तु अन्य श्रमणोपासक डिगे। श्री चुलनीपिताजी ने पुत्रों की हत्या का घोरतम आघात सहन कर लिया, परन्तु माता की हत्या का प्रसंग आने पर वे विचलित हो गए, इसी प्रकार सुरादेवजी अपने तन में भयानक रोगों की उत्पत्ति होना जान कर, चूलशतकजी धन-विनाश से, सकडालपुत्र जी धर्मसहायिका, धर्मरक्षिका, सुख-दुःख की साथिन पत्नी की हत्या के भय से विचलित हुए। परन्तु विचलित हो कर भी उन्होंने उस देव की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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