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आदि की प्रशंसा सौधर्म स्वर्ग के अधिपति, असंख्य देव-देवियों के स्वामी शक्रेन्द्र ने की थी। एक अविश्वासी देव उन्हें चलायमान करने आया। उसने पिशाच, गजराज और नागराज का रूप बना कर कामदेव जी को घोरातिघोर उपसर्ग दिये, किन्तु वह उन्हें धर्म से च्युत नहीं कर सका। वह निष्फल हुआ, पराजित हुआ। उसे कामदेवजी के चरणों में गिर कर क्षमा माँगनी पड़ी। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने श्रमणोपासक कामदेवजी की प्रशंसा की और श्रमण-निर्ग्रन्थों को उनका अनुकरण करने का उपदेश दिया और कुण्डकोलिक श्रमणोपासक को उसकी सिद्धांतरक्षिणी विमल बुद्धि पर धन्यवाद दिया। - ‘धण्णेसि णं तुमं कुण्डकोलिया!' (अ. ६) और मद्रुक श्रमणोपासक को कहा - 'सुठु ण मद्यया। साहुणं मया ।' (भग० १८-७) .
ऐसे थे वे महामना आदर्श श्रमणोपासक। धर्म में पूर्ण निष्ठा, दृढ़ आस्था और प्राणों की बाजी लगा कर भी स्थिर रहने की दृढ़ता होना परम आवश्यक है। इससे भव-बन्धन कट कर मुक्ति सन्निकट होती है।
प्रतिमाओं का स्वरूप और श्रमणोपासक चरित्र प्रतिमाओं का नाम और आगम-वर्णित स्वरूप पर विचार करते लगता है कि अंत की दोतीन प्रतिमाओं के पूर्व की प्रतिमाएं ऐसी नहीं कि जिसमें गृह-त्याग कर उपाश्रय में रहते हुए साधना करना आवश्यक ही हो जाय, जैसे-दर्शन प्रतिमा है। इसमें सम्यक्त्व का निरतिचार शुद्ध पालन करना अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त अन्य साधना जो प्रतिमाधारण करने के पूर्व की जाती थी और जिन व्रतों का पालन होता था, वह पालन होता रहे। इस प्रतिमा के लिए घरबार, कुटुम्ब-परिवार आदि छोड़ना आवश्यक नहीं लगता।
२. दूसरी प्रतिमा में प्रथम प्रतिमा के दर्शनाचार के सिवाय पांच अणुव्रत और तीन गुणव्रत का पालन करना आवश्यक है।
३. तीसरी में सामायिक और देशावकासिक व्रत का पालन करने की अधिकता है।
४. चौथी में अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या को प्रतिपूर्ण पौषध करना विशेष रूप में बढ़ जाता है।
५. पांचवीं में दिन को ब्रह्मचर्य का पालन करना और रात में परिमाण कर के मर्यादित रहना होता है, स्नान और रात्रिभोजन का भी त्याग होता है। ___ पाँचवीं प्रतिमा तक ब्रह्मचर्य का सर्वथा त्याग करना और चौथी तक स्नान और रात्रिभोजन का त्याग आवश्यक नहीं माना गया। . .
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