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________________ श्री उपासकदशांग सूत्र भावार्थ तदनन्तर चुलनीपिता श्रमणोपासक ने कामदेव श्रावक की तरह बीस वर्ष की श्रावक पर्याय का पालन किया यांवत् सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान कोण में स्थित अरुणप्रभ विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए। वहां उनकी स्थिति चार पल्यो म की है। गौतमस्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से पूछा हे भगवन्! चुलनीपिता देव, देवभव का क्षय करके कहां उत्पन्न होगा ? - ११० - भगवान् ने फरमाया हे गौतम! वहां से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा । विवेचन - चुलनीपिता दृढ़ श्रद्धावान् था । श्रद्धा को अंत तक अखंड रखी परंतु माता की ममता के कारण देव के प्रति समभाव नहीं रहा । पौषधभाव में स्खलना हुई। चुलनीपिता श्रावक ने जहां एक तरफ अपने शरीर पर होने वाली दारुण वेदना को स्वीकार किया तो दूसरी तरफ माता पर आने वाली आपत्ति की कल्पना से अधीर हो गये। माता के प्रति उनकी जो कर्त्तव्यनिष्ठा थी, वह गुण रूप थी। परंतु ऐहिक कर्त्तव्यनिष्ठा में पारलौकिक आध्यात्मिक साधना रूप पौषध की सीमा का उल्लंघन कर उपसर्गदाता को पकड़ने आदि की प्रवृत्ति और संकल्प रूप प्रतिकार कृत्य करने को तत्पर हो गये, यही उनकी स्खलना हुई, यही उनका दोष हुआ । माता के निर्देश से चुलनीपिता ने प्रायश्चित्त किया और पुनः आत्मभाव में लीन हुए । मातुश्री ने कहा - 'पुत्र! यह तुम्हारी परीक्षा हेतु देवकृत उपसर्ग था। हमारा तो किसी का कुछ नहीं बिगड़ा है पर मातृमोह एवं मातृ-श्रद्धा के कारण तुम्हारा पौषधव्रत खण्डित हो गया है। अतः तुरन्त प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध बनो।' ऐसी विकट परिस्थितियों में भी चुलनीपिता व्रत खण्डन के दोषी माने गये एवं उन्होंने प्रायश्चित्त लेकर अपने आप को व्रत खण्डन के पाप से मुक्त कर अपना शुद्धिकरण किया । साधना एवं व्रत पालन में स्खलना, कैसी भी विकट स्थिति या परिस्थिति में हो, उसे क्षम्य नहीं माना गया है। ऊंचे से ऊँचे मातृ-श्रद्धा के कर्त्तव्य का भाव भी व्रतस्खलना के पाप मुक्त करने में समर्थ नहीं होता । भावों एवं परिस्थितियों के अनुसार प्रायश्चित्त का दण्ड जरूर भावों की उच्चता तथा नीचता एवं परिस्थिति को ध्यान में रख कर हल्का भारी किया जा सकता है पर स्खलना - स्खलना है, उसका दण्ड स्वरूप प्रायश्चित्त शुद्धिकरण हेतु नितान्त आवश्यक है। ॥ तीसरा अध्ययन समाप्त ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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