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________________ द्वितीय अध्ययन - श्रमणोपासक कामदेव - सर्प रूप देव उपसर्ग १ पौषधशाला से बाहर निकला और हस्ती का रूप त्याग कर एक महान् दिव्य सर्प रूप की विकुर्वणा की। वह सर्प उग्र विष वाला, अल्प समय में ही शरीर में व्याप्त हो जाय ऐसे चण्ड (रौद्र) विष वाला, शीघ्र ही मृत्यु का हेतु होने से घोर विषैला, बड़े आकार वाला, स्याही एवं मूस (धातु गलाने का पात्र) के समान काला, दृष्टि पड़ते ही प्राणी भस्म हो जाय ऐसा दृष्टिविष, जिसकी आँखें रोष से भरी थीं, काजल के ढेर के समान प्रभा वाला, जिसकी आँखें लालिमायुक्त क्रोध वाली थीं, दोनों जीभें चंचल तथा लपलपाती थीं, अत्यन्त लम्बा तथा कृष्णवर्ण वाला होने से धरती की वेणी (काली चोटी) के समान दृष्टिगत होता था, अन्य का पराभव करने में उत्कट, चाह एवं स्वभाव से अत्यंत कुटिल, जटिल, निष्ठुर, फण का घटाटोप करने में दक्ष, लुहार की धौंकनी के समान धमाधमायमान शब्द करता हुआ, फुत्कार करता हुआ, जिसका तीव्र कोप रोका जाना संभव नहीं, ऐसा भयंकर सर्प रूप बना कर कामदेव श्रमणोपासक के निकट आया और यों कहने लगा। . हं भो कामदेवा! समणोवासया! जाव ण भंजेसि तो ते अजेव अहं सरसरस्स कायं दुरुहामि, दुरुहित्ता पच्छिमेणं भाएणं तिक्खुत्तो गीवं वेढेमि वेढेत्ता तिक्खाहिं विसपरिगयाहिं दाढाहिं उरंसि चेव णिकुट्टे मि, जहा णं तुम अदृदुहवसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजसि। कठिन शब्दार्थ - भंजेसि - भंग करेगा, सरसरस्स - सर्राट करता हुआ, दुरुहामि - चढ़ता हूं, पच्छिमभायेणं - पिछले भाग-पूंछ से, गीवं - गले को, वेढेइ - लपेट लगाता हूं, विसपरिगयाहिं दाढाहिं - जहरीले दांतों से, णिकुठेमि - डंक मारूंगा-डनूंगा। भावार्थ - हे कामदेव! यदि तू श्रावक-व्रतों का भंग नहीं करेगा, तो मैं अभी सरसराहट करता हुआ तेरे शरीर पर चढ़ जाऊँगा, पूंछ से तेरी गर्दन पर तीन आँटे लगा कर लिपट जाऊँगा तथा तीक्ष्ण विषैली दाढ़ाओं से तेरे हृदय पर डराँगा, जिससे तू आर्तध्यान करता हुआ अकाल में ही मर जायेगा। तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं सप्परूवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ, सोऽवि दोच्चंपि तच्चंपि भणइ, कामदेवोऽवि जाव विहरइ। तए णं से देवे सप्परूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते ४ कामदेवस्स समणोवासयस्स सरसरस्स कायं दुरुहइ, दुरुहित्ता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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