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________________ ७६ श्री उपासकदशांग सूत्र **-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*----*-*--*---*--*---*--*-*-*----------- कठिन शब्दार्थ - संकिए - शंका, कंखिए - कांक्षा, विइगिच्छा - विचिकित्सा संशय, गमणागमणाए - गमनागमन का, एसणमणेसणं - एषणीय-अनेषणीय की, आलोएइआलोचना की, पडिदंसइ - दिखलाया। भावार्थ - आनन्द श्रमणोपासक के इस प्रकार कहने पर भगवान् गौतम के मन में शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न हुई। वे आनंद के पास से रवाना होकर द्युतिपलाश चैत्य में जहाँ भगवान् महावीर स्वामी थे वहाँ आए, आकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के न अधिक दूर और न अधिक निकट गमनागमन का प्रतिक्रमण किया, एषणीय अनेषणीय की आलोचना की। आलोचना कर आहार पानी दिखलाया और वंदना नमस्कार कर इस प्रकार कहां - हे भगवन्! मैं आप की आज्ञा ले कर भिक्षा के लिए गया यावत् आनंद श्रावक से हुआ वार्तालाप कहा। इस घटना के बाद मैं शंका, कांक्षा, विचिकित्सा युक्त होकर आनंद श्रावक के पास से चल कर यहां शीघ्र आया हूँ। गौतम स्वामी की शंका का समाधान तं णं भंते! किं आणंदेणं समणोवासएणं तस्स ठाणस्स आलोएयव्वं जाव पडिवजेयव्वं उदाहु मए?' __'गोयमाइ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी - 'गोयमा! तुमं चेव णं तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवजाहि, आणंदं च समणोवासयं एयमलैं खामेहि। भावार्थ - हे भगवन्! उक्त स्थान-आचरण के लिए क्या श्रमणोपासक आनन्द को आलोचना करनी चाहिये या मुझे? ___ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कहा - हे गौतम! आनन्द का कथन यथार्थ है। अतः तुम ही उस कथन की आलोचना कर प्रायश्चित्त करो तथा आनंद श्रमणोपासक से क्षमायाचना भी करो। गणधर गौतम की क्षमायाचना तए णं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहत्ति' एयमढं विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव पडिवजइ, आणंदं च समणोवासयं एयमढं खामेइ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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