SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्या सत्य का भी प्रायश्चित्त होता है? ७५ भावार्थ तब गौतम स्वामी ने आनंद श्रमणोपासक से कहा हे आनंद! गृहस्थ को अवधिज्ञान तो होता है परन्तु इतना विशाल नहीं हो सकता । अतः तुम इस स्थान की आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करो, तदर्थ तपःकर्म स्वीकार करो । तणं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयमं एवं वयासी - 'अत्थि णं भंते! जिणवयणे संताणं तच्चाणं तहियाणं सब्भूयाणं भावाणं आलोइज्जइ जाव पडिवज्जिज्जइ ?' णो इणट्ठे समट्ठे । 'जइ णं भंते! जिणवयणे संताणं जाव भावाणं णो आलोइज्जइ जाव तवोकम्मं णो पडिवज्जिज्जइ तं णं भंते! तुब्भे चेव एस्स ठाणस्स आलोएह जाव पडिवज्जह' । कठिन शब्दार्थ - जिणवयणे - जिनशासन में, संताणं - सत्य, तच्चाणं - तत्त्वपूर्ण, तहियाणं - तथ्य - यथार्थ, सब्भूयाणं - सद्भूत, भावाणं - भावों का, आलोइज्जइ आलोचना स्वीकार करनी होती है, पडिक्कमिज्जइ प्रतिक्रमण करना होता है । प्रथम अध्ययन - Jain Education International श्रमणोपासक आनंद भावार्थ - आनन्द श्रमणोपासक ने भगवान् गौतम स्वामी से निवेदन किया - हे भगवन् ! क्या जिनशान में सत्य, तथ्य, सद्भूत भावों की भी आलोचना प्रायश्चित्त है ? गौतम स्वामी ने कहा- ऐसा नहीं होता । आनन्द ने कहा हे भगवन्! जिनशासन में सत्य भावों के लिए आलोचना स्वीकार नहीं करनी होती तो हे भगवन्! आप इस मृषास्थान की आलोचना स्वीकार करें। तएं णं से भगवं गोयमे आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए विइगिच्छासमावण्णे आणंदस्स अंतियाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव दूइपलासे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमइ, पडिक्कमित्ता एसणमणेसणं आलोएइ, आलोएत्ता भत्तपाणं पडिदंसे, पडिदंसित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी 'एवं खलु ते! अहं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए तं चेव सव्वं कहेइ जाव तए णं अहं संकिए कंखिए वित्तिगिच्छसमावण्णे आणंदस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पडिणिक्खमामि, पडिणिक्खमित्ता जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए । For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy