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________________ प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - गणधर गौतम की क्षमायाचना ७७ तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ बहिया जणवयविहारं विहरइ । भावार्थ - गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का कथन 'आप ठीक फरमाते हैं' यों कह कर विनय पूर्वक सुना। सुन कर उस स्थान-आचरण के लिए आलोचना स्वीकार की और श्रमणोपासक आनंद से अपने कथन के लिए क्षमायाचना की। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी किसी समय अन्य जनपदों में विहार कर गए। विवेचन - यह उपासकदशांग सूत्र भगवान् सुधर्मा स्वामी की रचना है। उन्होंने इसमें गौतम स्वामी का यह प्रसंग क्यों दिया? इस प्रश्न के उत्तर में ज्ञानी फरमाते हैं कि तीर्थंकरों से तो कोई भूल होती ही नहीं है। उनके बाद गणधरों में गौतम स्वामी का अग्र स्थान था। भगवान् के प्रथम-प्रधान शिष्य द्वारा एक श्रावक से क्षमा-याचना करना साधारण बात नहीं है। इस दृष्टान्त से यह सिद्धि होती है कि चाहे कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो तथा अगला व्यक्ति कितना ही छोटा क्यों न हो, भूल को भूल मानना यही सम्यक्त्व की भूमिका एवं सिद्धि का प्रथम सोपान है। मैं बड़ा हूँ, छोटे के सामने मेरी नम्रता क्यों?' यह भावना विकास की अवरोधक है। प्रश्न - क्या गौतम स्वामी चार ज्ञान चौदह पूर्वधर नहीं थे? यदि थे तो ऐसी कथनस्खलना कैसे संभव है? समाधान - आनन्दजी के क्षमा-याचना प्रसंग से पूर्व ही गौतम स्वामी चार ज्ञान एवं चौदह पूर्व धारक थे। दशवैकालिक सूत्र अ० ८ गाथा ५० में कहा गया है - आधारपण्णतिधर, दिल्टिवायमहिजगं। वायविववलियं णच्चा, ण तं उवह मुणी॥ - “आचार-प्रज्ञप्ति के ज्ञाता और दृष्टिवाद के अध्येता भी बोलते समय प्रमादवश वचन से स्खलित हो जाये, तो उनके अशुद्ध वचन को जान कर साधु उन महापुरुषों का उपहास न करे।" ___अतः गौतम स्वामी का उक्त कथन चार ज्ञान चौदह पूर्व में बाधक नहीं है। सत्य बोलने के भाव रखते हुए भी उपयोग नहीं पहुंचने से असत्य भाषण हो जाये तो शास्त्रकार उन्हें आराधर्व मानते हैं, विराधक नहीं। ' गौतम स्वामी ने पारणा भी बाद में किया, पहले क्षमा-याचना की। आगमों के ये देदीप्यमान ज्वलंत उदाहरण 'भूल को भूल स्वीकार करने की' आदर्श प्रेरणा देते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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