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________________ ७२ 30-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-10-19-00-00-00-00-00-00-0-0-0-0-0-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00 श्री उपासकदशांग सूत्र भावार्थ - बेले के पारणे के दिन भगवान् गौतम स्वामी ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, दूसरे प्रहर में ध्यान किया, तीसरे प्रहर में चपलता एवं त्वरा रहित, असंभ्रान्त रीति से मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की, पात्रों और वस्त्रों की प्रतिलेखना की, पात्रों का प्रमार्जन कर के ग्रहण किया और जहाँ भगवान् महावीर स्वामी विराज रहे थे, वहां आकर के वन्दना-नमस्कार कर बोले-'हे भगवन्! यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं वाणिज्यग्राम नगर में सामुदानिकी भिक्षाचर्या के लिए जाऊँ?' भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया-'हे देवानुप्रिय! तुम्हें सुख हो, वैसा करो।' तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसम्भंते जुगंतरपरिलोयणाए दिट्ठीए पुरओ ई(इ)रियं सोहेमाणे जेणेव वाणियगामे णयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वाणियगामे णयरे उच्चणीयमज्झिमाई कुलाइं घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ। ___कठिन शब्दार्थ - जुगंतरपरिलोयणाए - युग परिमाण (चार हाथ प्रमाण मार्ग) परिलोकन करते हुए, ईरियं - ईर्या, सोहेमाणे - शोधन करते हुए, अडइ - घूमने लगे। भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर गौतम स्वामी द्युतिपलाश उद्यान से निकल कर अत्वरित, अचपल एवं असंभ्रांत गति से चार हाथ प्रमाण आगे का क्षेत्र देखते हुए ईर्या समिति पूर्वक वाणिज्य ग्राम नगर में सामुदानिकी भिक्षा के लिए भ्रमण करने लगे। ___तए णं से भगवं गोयमे वाणियगामे णयरे जहा पण्णत्तीए तहा जाव भिक्खायरियाए अडमाणे अहापजत्तं भत्तपाणं सम्म पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहित्ता वाणियगामाओ पडिणिग्गच्छइ पडिणिग्गच्छित्ता कोल्लायस्स सण्णिवेसस्स अदूरसामंतेणं वीईवयमाणे बहुजणसई णिसामेइ। बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ ४ - ‘एवं खलु देवाणुप्पिया! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आणंदे णामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिम जाव अणवकंखमाणे विहरई। कठिन शब्दार्थ - पण्णत्तीए - व्याख्याप्रज्ञप्ति, अहापजत्तं - यथापर्याप्त-जितना जैसा अपेक्षित था उतना, बहुजणसई - बहुत से लोगों के शब्दों को, अंतेवासी - अन्तेवासी-शिष्य। ____ भावार्थ - तब गौतम स्वामी ने व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में वर्णित भिक्षाचर्या विधान के अनुरूप भिक्षा हेतु घूमते हुए यथापर्याप्त आहार पानी सम्यक् प्रकार से ग्रहण किया और ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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