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प्रथम अध्ययन श्रमणोपासक आनंद गौतम स्वामी का समागम
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या सजावट से रहित, संखित्त - विउलतेउलेस्से - संक्षिप्त - विपुल तेजोलेश्या वाले, छट्ठ
छट्टेणं - बेले-बेले, अणिक्खित्तेणं
लगातार (निरन्तर) ।
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भावार्थ - - उस काल उस समय में (जब आनन्दजी का संथारा चल रहा था) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वाणिज्यग्राम नगर पधारे। परिषद् सेवा में गई । धर्मोपदेश सुन कर लौट गई। तब श्रमण-भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य इंद्रभूतिजी (गौतम गौत्र के कारण 'गौतम' के नाम से अधिक प्रख्यात थे) सात हाथ ऊंचे, समचतुरस्रसंस्थान वाले, वज्रऋषभनाराच संहनन वाले, कसौटी पर कसे शुद्ध होने और पद्मपराग के समान गौरवर्ण के थे । उनका तप उग्र, दीप्त (कायरों के लिए लोहे के तपे गोले के समान) तप्त, घोर, महान् और उदार था, हीन सत्त्व वाले उनके गुण सुन कर ही काँपते थे, अतः वे घोर गुणी थे। निरन्तर बेले- बेले का तप करने के कारण वे घोर तपस्वी थे। उनका ब्रह्मचर्य भी बहुत निग्रह प्रदान था । वे शरीर की विभूषा आदि नहीं करते थे, देह-मोहातीत थे। यद्यपि उन्हें विपुल तेजोलेश्या प्राप्त थी, परन्तु उसे वे शरीर में ही संक्षिप्त कर रखते थे, कभी प्रकट करने की इच्छा भी नहीं होती थी । वे निरन्तर बेले - बेले का तप करते हुए अपनी आत्मा को संयम - तप से भावित करते हुए विचरते थे ।
तणं से भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बिइयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियं अचवलं असम्भंते मुहपत्तिं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता भायणवत्थाई पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता भायणवत्थाई पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाई उग्गाहेड़, उग्गाहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदिता णमंसित्ता एवं वयासी - 'इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए छट्ठक्खमणस्स पारणगंसि वाणियगामे णयरे उच्चणीयमज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए' । 'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह ।' कठिन शब्दार्थ - पोरिसीए - पोरिसी ( प्रहर) में, अतुरियं अत्वरित - जल्दबाजी न करते हुए, अचवलं अचपल - स्थिरता पूर्वक, असंभंते - असंभ्रान्त - अनाकुल भाव से - जागरुकता पूर्वक, मुहपत्तिं मुख वस्त्रिका का, भायणवत्थाई पात्रों एवं वस्त्रों का, उच्चणीय मज्झिमाई उच्च (धनी) निम्न (निर्धन) मध्यम, घर समुदाणस्स क्रमागत किसी भी घर को छोड़े बिना ।
गृह समुदानी -
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