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तृतीय उद्देशक - शल्य-क्रिया का प्रायश्चित्त
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पर घाव हो जाते हैं। कांटा, कील, तीखा पत्थर आदि चुभने से, चलते हुए लड़खड़ाकर या किसी वस्तु से टकराकर गिर पड़ने से, किसी जहरीले जन्तु के काटने से भी घाव हो जाता है।
यह शारीरिक पीड़ा है। साधु कर्म निर्जरा के उज्ज्वल परिणामों के साथ यदि पीड़ा को सहन करता है तो यह उसके त्याग-तितिक्षामय जीवन का सूचक है।
· घाव असह्य पीड़ाजनक हो जाए, विस्तार पाने लगे तो उदासीन भाव से निरवद्य रूप में उसका उपचार करने में दोष नहीं है।
इन सूत्रों में घाव के आमर्जन, प्रमार्जन आदि के रूप में जो वर्णन आया है, वह उपेक्षामय, नि:स्पृह, चिकित्सोपचार का द्योतक नहीं है। सूत्रों में वर्णित प्रक्रियाएँ साधु की देहासक्तिपूर्ण मानसिकता की सूचक है। व्रण या घाव पर विविध प्रयोग किए जाने का जो वर्णन हुआ है, साधु वैसा तभी करता है, जब एक मात्र शरीर की ओर ही या व्रण की ओर ही उसका ध्यान हो, प्रतिक्षण वही उसे सूझे (दिखे)। ऐसा होना दोषयुक्त है, प्रायश्चित्त योग्य है।
शल्य-क्रिया का प्रायश्चित्त - जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं (पिलयं) वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिंदेज वा विच्छिंदेज वा अच्छिंदंतं वा विच्छिंदतं वा साइजइ ॥ ३४॥ - जे भिक्खू अप्पणो कायंसि गंडं वा पलियं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिंदित्ता विच्छिंदित्ता पूयं वा सोणियं वा णीहरेज वा विसोहेज वा णीहरेंतं वा विसोहेंतं वा साइजइ॥ ३५॥ .. जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिंदित्ता विच्छिंदित्ता पूर्व वा सोणियं णीहरित्ता विसोहेत्ता सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं वा साइजइ॥ ३६॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिंदित्ता विच्छिंदित्ता णीहरित्ता
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