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तृतीय उद्देशक - पाद - आमर्जन आदि का प्रायश्चित्त
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बार-बार धोए, फुमेज्ज - मुख की वायु (फूत्कार) द्वारा स्फुरित करे, रएज्ज - रंजित करे - लाक्षारस-महावर आदि से रंगे।
भावार्थ - १६. जो भिक्षु अपने पैरों का आमर्जन या प्रमार्जन करे अथवा आमर्जन, प्रमार्जन करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुभासिक प्रायश्चित्त आता है।
१७. जो भिक्षु अपने पैरों का संवाहन करे या परिमर्दन करे अथवा संवाहन या परिमर्दन करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ___ १८. जो भिक्षु अपने पैरों की तेल, घृत, चिकने पदार्थ या मक्खन द्वारा एक बार या अनेक बार मालिश करे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
१९. जो भिक्षु अपने पैरों पर लोध्र, कल्क, पीसे हुए एकाधिक सुगन्धित पदार्थों के चूर्ण, वर्ण या सुगन्धित द्रव्य विशेष के बुरादे को एक बार या बार-बार मले - मसले अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। __.२०. जो भिक्षु अपने पैरों को अचित्त शीतल जल से या अचित्त उष्ण जल से एक बार या बार-बार धोए अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता
२१. जो भिक्षु अपने पैरों को मुख की वायु द्वारा फूत्कारित - स्फुरित करे या लाक्षारसमहावर आदि से रंगे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। - विवेचन - इन सूत्रों में पांवों के दबाने आदि कार्यों की मनाई की है, उसका आशय यह समझना कि - गृहस्थों के समान प्रतिदिन की आदत से ये कार्य नहीं करना, यथाशक्य शरीर का परिकर्म नहीं करना। यदि सहनशक्ति से अधिक हो जाएं तो विशेष परिस्थिति में संयम साधना के लक्ष्य को रखते हुए स्थविरकल्पी साधु साध्वियाँ शरीर का परिकर्म कर सकते हैं। इसी निशीथ सूत्र के १३वें उद्देशक में बताया है कि - कोई रोग आए बिना शरीर का परिकर्म करें तो प्रायश्चित्त आता है। रोगादि विशेष परिस्थिति में योग्य उपचार आदि के रूप में शरीर परिकर्म करना आगम से विहित है। जिनकल्पी साधु साध्वी तो कैसी भी परिस्थिति में किञ्चित् मात्र भी शरीर का परिकर्म नहीं करते हैं।
. विभूषा की दृष्टि से शरीर का परिकर्म करने पर तो आगे के १५वें उद्देशक में लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त बताया है।
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