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निशीथ सूत्र
___ क्योंकि साधु के जीवन का लक्ष्य आत्मा है, शरीर नहीं। बहिरात्मभाव का त्याग कर अन्तरात्मभाव में संप्रवर्तित होता हुआ साधु अन्ततः परमात्मभाव को प्राप्त करे, यही उसके जीवन का उद्देश्य है।
जैसाकि पहले यथास्थान विवेचन हुआ है, शरीर तो केवल संयम का उपकरण या साधन होने से ही आदेय है। मात्र आदत से शरीर का परिकर्म करना भी संयम साधना में विहित नहीं है। वैसा करने वाला साधु निर्बाध रूप में महाव्रतों का पालन करने में सक्षम नहीं हो पाता। ब्रह्मचर्य महाव्रत की दृष्टि से तो ये देह परिकर्मात्मक प्रवृत्तियाँ नितांत गर्हित एवं . निंदित हैं। अतः ये दोषपूर्ण हैं, प्रायश्चित्त योग्य हैं।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि रुग्णता, वृद्धावस्था एवं पैरों की व्याधि आदि के कारण संवाहन, तेलमर्दन आदि अविहित नहीं हैं, औषध-प्रयोग या चिकित्सा के रूप में वैसा करना दोष रहित है। वहाँ तो शरीर को मात्र स्वस्थ एवं संयमोपयोगी रखने का अभिप्राय है।
___काय - आमर्जन आदि का प्रायश्चित्त जे भिक्खू अप्पणो कायं आमज्जेज वा पमज्जेज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइजइ॥ २२॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्य संवाहेज वा पलिमद्देन वा संवाहेंतं वा पलिमहेंतं वा साइजइ॥ २३॥
जे भिक्खू अप्पणो कायं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज वा भिलिंगेज वा मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा साइज्जइ॥२४॥ . जे भिक्खू अप्पणो कायं लोद्रेण वा जाव पउमचुण्णेण वा उल्लोलेज वा उव्वद्वेज वा उल्लोलेंतं वा उव्वèतं वा साइजइ॥ २५॥ ___ जे भिक्खू अप्पणो कायं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज वा उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं वा साइजइ॥ २६॥
जे भिक्खू अप्पणो कायं फूमेज वा रएज्ज वा फुमेंतं वा रएंतं वा साइज्जइ ॥२७॥
. भावार्थ - २२. जो भिक्षु अपने शरीर का आमर्जन या प्रमार्जन करे अथवा आमर्जन या प्रमार्जन करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
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