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द्वितीय उद्देशक - स्वल्प उपधि का भी प्रतिलेखन न करने का प्रायश्चित्त
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भावार्थ - ५९. जो भिक्षु स्वल्प उपधि का भी प्रतिलेखन नहीं करता या प्रतिलेखन नहीं करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
उपर्युक्त ५९ सूत्रों में किए गए किसी भी प्रायश्चित्त-स्थान के सेवन करने वाले को उद्घातिक परिहार-तप रूप लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार निशीथ अध्ययन (निशीथ सूत्र) का द्वितीय उद्देशक परिसमाप्त हुआ।
विवेचन - उपधि शब्द 'उप' उपसर्ग और 'धा' धातु से बनता है। "उप - समीपे, धीयते - धार्यते इति उपधि" इस व्युत्पत्ति के अनुसार उपधि का अर्थ वे वस्तुएँ हैं, जिन्हें सदैव अपने पास रखा जाता है। साधु के वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि को उपधि कहा जाता है। ये उसके प्रतिदिन बराबर उपयोग में आते हैं। - साधु अपनी नेश्राय में स्थित उपधि का नियमतः प्रतिलेखन करता है, जिससे जीवों की विराधना की आशंका नहीं रहती।
उपधि बड़ी और छोटी दोनों ही प्रकार की होती है। छोटी वस्तुओं के प्रति सामान्यतः व्यक्ति का ध्यान कम रहता है। कभी-कभी असावधानी भी हो जाती है। साधु द्वारा कदापि ऐसा न हो, यह इस सूत्र का आशय है। अतः छोटी उपधि का भी प्रतिलेखन न करना यहाँ दोषयुक्त बतलाया गया है। वैसा करने वाला साधु प्रायश्चित्त का भागी होता है। ..
उपर्युक्त सूत्र में "उभओकाल" शब्द नहीं होने से सभी उपकरणों की उभयकाल प्रतिलेखना करना आवश्यक नहीं समझना चाहिए। दिवस एवं रात्रि में काम आने वाले वस्त्र, स्थण्डिल पात्र, पूंजनी, रजोहरण आदि उपकरणों की उभयकाल प्रतिलेखना करना समझना चाहिए, किन्तु जो उपकरण मात्र दिवस में ही काम में आते हो। जैसे - आहारादि के पात्र एवं उनसे सम्बन्धित वस्त्र तथा पुस्तकादि उपकरणों का प्रतिलेखन दिवस में एक बार करना समझना चाहिए। साधु के पास की कोई भी उपधि को कम से कम एक बार तो प्रतिलेखना करना आवश्यक समझना चाहिए।
.. || इति निशीथ सूत्र का द्वितीय उद्देशक समाप्त॥
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