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निशीथ सूत्र
विप्रनष्ट या अपहत शय्या-संस्तारक की गवेषणा न करने का प्रायश्चित्त ___ जे भिक्खू पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारयं विप्पणटुं ण गवेसइ ण गवेसंतं वा साइजइ॥ ५८॥
कठिन शब्दार्थ - विप्पणटुं - विप्रनष्ट - खोया हुआ, चौर आदि द्वारा चुराया हुआ, ण - नहीं, गवेसइ - गवेषणा - खोज करता है।
भावार्थ - ५८. जो भिक्षु किसी अन्य से गृहीत या मकान मालिक से गृहीत, खोए हुए या चोर आदि द्वारा चुराए गए शय्या-संस्तारक की गवेषणा नहीं करता है अथवा गवेषणा नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - साधु किसी अन्य से लिए हुए या मकान मालिक से लिए हुए शय्यासंस्तारक का यद्यपि पूरा ध्यान रखता. है किन्तु फिर भी यदि कदाचन वह खो जाए या कोई चोर आदि लुब्धजन उसे उठा ले जाए, चुरा ले. तो साधु को चाहिए कि उसके लिए पूछताछ करे, गवेषणा करे। ऐसा न करना दायित्व बोध की कमी है, जो दोषयुक्त है। क्योंकि दाताः इसे साधु की असावधानी, दायित्वहीनता और अजागरूकता समझता है। साधु के प्रति उसके मन में अश्रद्धा का भाव उत्पन्न होना आशंकित है, और भी दोषों की संभावना है। ___गवेषणा करने पर खोया हुआ शय्या-संस्तारक मिल ही जाए, यह आवश्यक नहीं है। मिले या न मिले, किन्तु भलीभाँति खोज कर लेने पर साधु का दायित्व पूरा हो जाता है। दाता के मन में भी उसके प्रति विपरीत भाव उत्पन्न नहीं होता।
स्वल्प उपधि का भी प्रतिलेखन न करने का प्रायश्चित्त . जे भिक्खू इत्तरियपि उवहिं ण पडिलेहेइं ण पडिलेहेंतं वा साइजइ। तं सेवमाणे आवजइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥ ५९॥
॥णिसीहऽज्झयणे बिइओ उद्देसो समत्तो॥२॥ कठिन शब्दार्थ - इत्तरियपि - इत्वरिक - स्वल्प भी, उवहिं - उपधि, पडिलेहेइं - प्रतिलेखन करता है, उग्घाइयं - उद्घातिक।
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