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निशीथ सूत्र ...
"संस्तीर्यते - विस्तीर्यते इति संस्तारम्" : जो संस्तीर्णः - विस्तीर्ण किया जाता है - फैलाया जाता है, उसे "संस्तार" कहा जाता है। संस्तार का अर्थ सोने हेतु बिछाने की चद्दर आदि है। संस्तार शब्द के आगे स्वार्थिक 'क' प्रत्यय लग जाने से "संस्तारक" . बनता है। संस्तारक का प्रमाण ढाई हाथ बतलाया गया है। - शय्या और संस्तार के समाहार में, द्वन्द्व समास में दोनों मिलकर शय्या-संस्तारक के रूप में एक समस्त - समास युक्त पद का रूप ले लेते हैं।
___ इन सूत्रों में जो निर्देश हुआ है, उसका तात्पर्य यह है कि मासकल्प के अनुसार विहरणशील भिक्षु जिस क्षेत्र में प्रवास कर रहा हो और यदि वहीं चातुर्मासिक प्रवास करने का संयोग बन जाए तो उसे शय्या-संस्तारक उसके स्वामी को लौटा देने चाहिए अथवा उन्हें चातुर्मास में रखने की उससे पुनः आज्ञा प्राप्त करनी चाहिए। यदि किसी कारणवश वैसा न किया जा सके और संवत्सरी तक भी वह उन्हें न लौटा सके तथा रखने के लिए पुनः आज्ञा. प्राप्त न कर सके तो यह दोषपूर्ण है, प्रायश्चित्त योग्य है।
इसी प्रकार चातुर्मासिक प्रवास के अन्तर्गत उपयोग में लेने हेतु किसी भिक्षु द्वारा शय्यासंस्तारक याचित कर रखे गए हों तथा रुग्णता आदि के कारण यदि वह चातुर्मास के पश्चान भी विहार न कर सके तो उसे चातुर्मास के लिए याचित शय्या-संस्तारक दस दिनों के भीतर उनके स्वामी को लौटा देने चाहिए या उन्हें रखने की उनसे पुनः आज्ञा प्राप्त करनी चाहिए। वैसा न करना दोषयुक्त है। ___ ये सूत्र भिक्षु के जागरूकतापूर्ण मर्यादानुवर्ती जीवन के उद्बोधक हैं। आचार-संहितासम्मत मर्यादाओं का उल्लंघन कभी न हो, इन सूत्रों से यह प्रेरणा प्राप्त होती है।
वर्षा से भीगते हुए शय्या-संस्तारक को न हटाने का प्रायश्चित्त
जे भिक्खू उडुबद्धियं वा वासावासियं वा सेज्जासंथारगं उवरिसिजमाणं पेहाए ण ओसारेइ ण ओसारेंतं वा साइजइ॥५२॥
कठिन शब्दार्थ - उवरिसिज्जमाणं - उद्वर्ण्यमाण - वर्षा से भीगते हुए, पेहाए - प्रेक्षित कर - देखकर, ओसारेइ - अवसृत करता है - दूर करता है या हटाता है।
भावार्थ - ५२. जो भिक्षु ऋतु बद्ध काल हेतु या वर्षाकाल हेतु लिए गए शय्या
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