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द्वितीय उद्देशक - बिना आज्ञा शय्या-संस्तारक बाहर ले जाने का प्रायश्चित्त
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संस्तारक को वर्षा से भीगता हुआ देखकर भी दूर नहीं करता - वहाँ से नहीं हटाता अथवा नहीं हटाते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - यहाँ समास युक्त शय्या-संस्तारक पद में शय्या शब्द शयन के उपयोग में आने वाले आस्तरण या बिछौने के अर्थ में है।
प्रस्तुत सूत्र में बतलाया गया है कि मासकल्पित या चातुर्मासिक प्रवास में उपयोग हेतु याचित शय्या-संस्तारक तथा उपलक्षण से अन्य उपधि को वर्षा में भीगते हुए देखकर भी जो भिक्षु उन्हें वहाँ से नहीं हटाता, किसी सुरक्षित स्थान पर नहीं रखता, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है, क्योंकि यह भिक्षु की अजागरूकता का सूचक है।
यद्यपि वर्षा में भिक्षु को बाहर जाना नहीं कल्पता, किन्तु शय्या-संस्तारक एवं अन्य उपधि के भीगते रहने से अप्कायादि जीवों की हिंसा आदि अनेक दोष आशंकित हैं।
व्यावहारिक दृष्टि से भी यह अनुचित है, क्योंकि भीग जाने पर उपधि आदि उपयोग में लेने योग्य नहीं रहते। जिनसे वे याचित किए गए हों, उनके मन में भी इससे अन्यथा भाव उत्पन्न होता है। भिक्षुओं के प्रति उनके मन में रही श्रद्धा व्याहत होती है। इस प्रकार लौकिक और पारलौकिक - दोनों ही दृष्टियों से यह हानिप्रद है। जागरूक भिक्षु वैसा कदापि न करे।
बिना आज्ञा शय्या-संस्तारक बाहर ले जाने का प्रायश्चित्त __ जे भिक्खू पाडिहारियं सेजासंथारयं दोच्चंपि अणणुण्णवेत्ता बाहिं णीणेइ णीणेतं वा साइज्जइ॥ ५३॥ ..
जे भिक्खू सांगारियसंतियं सेजासंथारयं दोच्चंपि अणणुण्णवेत्ता बाहिं णीणेड़ णीणेतं वा साइजइ॥५४॥
जे भिक्खू पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारयं दोच्चंपि अणणण्णवेत्ता बाहिं णीणेइ णीणेतं वा साइज्जइ॥५५॥
कठिन शब्दार्थ - पाडिहारियं - प्रातिहारिक - दूसरी जगह से याचित कर लाए हुए, दोच्चपि - पुनरपि - दूसरी बार भी, बाहिं - (उपाश्रय से) बाहर, णीणेइ - ले जाता है, मागारियसंतियं - गृहस्थ संबंधी - मकान मालिक के अपने घर में स्थित, उससे याचित, अणणुण्णवेत्ता - आज्ञा लिए बिना।
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