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द्वितीय उद्देशक - कालतिक्रान्त रूप में शय्या - संस्तारक सेवन का प्रायश्चित्त ४७
इससे दाता पर भार पड़ता है। एक साधु का जीवन तो वायु की तरह हल्का होता है। उसका किसी पर जरा भी भार न पड़े, यह अपेक्षित है । इसी कारण सागारिक के निःश्रय में - उसे साथ में ले कर भिक्षा हेतु किसी के यहाँ जाना, आहार- पानी की याचना करना दोषयुक्त है, प्रायश्चित्त योग्य है।
कालातिक्रान्त रुप में शय्या - संस्तारक सेवन का प्रायश्चित्त
जे भिक्खू उडुबद्धियं सेज्जासंथारयं परं पज्जोसवणाओ उवाइणावेइ उवाइणावंतं वा साइज्जइ ॥ ५० ॥
जे भिक्खू वासावासियं सेज्जासंथारयं परं दसरायकप्पाओ उवाइणावेइ उवाइणावतं वा साइज्जइ ॥ ५१ ॥
उडुबद्धियं
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कठिन शब्दार्थ ऋतु बद्ध काल-विषयक, सेज्जासंथारयं शय्यासंस्तारक, परं – आगे - बाद में, पज्जोसवणाओ - पर्युषण पर्व से सांवत्सरिक दिवस से, उवाइणावेइ - अतिक्रमण - उल्लंघन करता है, वासावासियं वर्षावास – चातुर्मासिक . प्रवास, दसरायकप्पाओ - दस रात्रि कल्प से।
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भावार्थ - ५०. जो भिक्षु ऋतु बद्ध काल मार्गशीर्ष से लेकर आषाढ मास पर्यन्त शेष काल (चातुर्मास के अतिरिक्त मास कल्पानुगत काल ) के लिए गृहीत शय्या - संस्तारक को पर्युषण पर्व से आगे या बाद भी रखता है - यों मर्यादित काल का उल्लंघन करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है ।
५१. जो भिक्षु चातुर्मास के लिए गृहीत शय्या संस्तारक को चातुर्मास समाप्त होने के बाद भी दस दिन से अधिक रखता है- यों मर्यादित समय का उल्लंघन करता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है 1
विवेचन - जैन आगमों में 'शय्या' शब्द साधु द्वारा प्रवास हेतु गृहस्थ से याचित स्थान या मकान के लिए आता है और शय्या सोने के स्थान के लिए भी उसका प्रयोग होता है । प्रवास में दैनंदिन कार्यों में सोना मुख्य है, क्योंकि उसमें कियत्काल पर्यन्त निरन्तरता रहती है । इसीलिए संभवतः शय्या शब्द रहने के स्थान या घर के अर्थ में भी प्रवृत्त हो गया । शय्यासोने का स्थान या बिछौना शरीर प्रमाण बतलाया गया है।
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