________________
द्वितीय उद्देशक - अदत्तादान का प्रायश्चित्त
२७
मृषावाद का प्रायश्चित्त जे भिक्खू लहुसगं मुसं वय वयंतं वा साइजइ॥ १९॥ कठिन शब्दार्थ - मुसं - मृषा - असत्य।
भावार्थ - १९. जो भिक्षु जरा भी असत्य बोलता है या असत्य बोलते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - बिना विचारे अयथावत् बोलना, भय या संकोच से अन्यथा भाषण करना आदि मृषावाद के अन्तर्गत है। ___ मन, वचन, काय रूप तीन योग तथा कृत, कारित, अनुमोदित रूप तीन करण पूर्वक सत्य को जिसने स्वीकार किया है उसे - भिक्षु को जरा भी असत्य वाणी नहीं बोलनी चाहिए। सत्य बोलते समय उसे किसी से भयभीत नहीं होना चाहिए, न संकोच ही करना चाहिए। 'तं सच्चं भय के रूप में आगमों में सत्य को भगवान् - भगवत् स्वरूप कहा गया है। सत्य का जरा भी उल्लंघन करना दोषपूर्ण है, प्रायश्चित्त योग्य है।
अदत्तादान का प्रायश्चित्त जे भिक्खू लहुसगं अदत्तं आइयइ आइयंतं वा साइज्जइ॥ २०॥
कठिन शब्दार्थ - अदत्तं - अदत्त - नहीं दिया हुआ, आइयइ - आदान - 'ग्रहण करता है।
भावार्थ - २०. जो भिक्षु नहीं दी हुई वस्तु को जरा भी ग्रहण करता है, लेता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - अस्तेय - अचौर्य या अदत्तादान तीसरा महाव्रत है। साधु उसका तीन योग एवं तीन करण पूर्वक पालन करता है। वह किसी के द्वारा अदत्त - नहीं दी गई वस्तु को स्वयं नहीं लेता तथा न लेते हुए का अनुमोदन ही करता है।
दशवैकालिक सूत्र में तो यहाँ तक कहा गया है - "दंतसोहणमित्तं पि, उग्गह सि अजाइया" - साधु दाँत को कुरेदने के लिए, स्वच्छ करने के लिए एक तिनका भी उसके स्वामी से याचित किए बिना, मांगे बिना ग्रहण नहीं करते हैं। यद्यपि तिनका कोई बड़ी या मूल्यवान वस्तु नहीं है, बहुत ही साधारण है। किन्तु साधु
दशवैकालिक सूत्र, अध्ययन-६, गाथा-१४-१५।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org