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निशीथ सूत्र
उसे भी स्वामी द्वारा दिए बिना नहीं लेता, क्योंकि अदत्त अथवा बिना दी हुई वस्तु चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो, उसे लेना दोषयुक्त है, प्रायश्चित्त योग्य है।
देहसज्जा का प्रायश्चित्त जे भिक्खू लहुसएण सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा हत्थाणि वा पायाणि वा कण्णाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा णहाणि वा (मुहं वा) उच्छोलेज वा पधोवेज वा उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं वा साइज्जइ॥ २१॥ ___ कठिन शब्दार्थ - लहुसएण - लघुस्वक - स्वल्प, जरा भी या बूंद मात्र भी, सीओदगवियडेण - अचित्त शीतल जल द्वारा, उसिणोदगवियडेण - अचित्त उष्ण जल द्वारा, हत्थाणि - हस्त - हाथ, पायाणि - पाद - पैर, कण्णाणि - कान, अच्छीणि - नैत्र, दंताणि - दाँत, णहाणि - नख, मुहं - मुँह, उच्छोलेज्ज - उत्क्षालित - प्रक्षालित करे, पधोवेज्ज - प्रधोवित करे - भलीभाँति धोए। ___ भावार्थ - २१. जो भिक्षु ठण्डे या गर्म अचित्त जल द्वारा हाथ, पैर, कान, नैत्र, दाँत, नख तथा मुँह को जरा भी प्रक्षालित करे या प्रधोवित करे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - अस्तेय महाव्रत के बाद चौथा ब्रह्मचर्य महाव्रत है। ब्रह्मचर्य के आराधक साधु को शृंगार या देहसज्जा मूलक प्रवृत्तियों से सदा बचते रहना चाहिए। क्योंकि वैसा करने से मन में विकार उत्पन्न होता है। साधु के लिए शरीर तो केवल संयम का साधन है, इसलिए जब तक वह संयम का उपकारक रहे, उसकी देखरेख, सार सम्हाल करना आवश्यक है। अतः भोजनादि के पश्चात् हाथ धोना, मुँह की सफाई करना आदि तो अपेक्षित है, किन्तु शरीर को सुन्दर, स्वच्छ या आकर्षक बनाने की दृष्टि से ठण्डे या गर्म अचित्त जल से प्रक्षालित करना, स्वच्छ करना वर्जित है। क्योंकि यह शरीर की सजावट में आता है, जो साधु के लिए सर्वथा परिहेय, परित्याज्य है। अत एव दोष युक्त है, प्रायश्चित्त योग्य है।
अवण्डित चर्म रखने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू कसिणाई चम्माइं धरेइ धरतं वा साइजइ॥ २२॥
कठिन शब्दार्थ - कसिणाई - कृत्स्न - अखण्ड, चम्माइं - चर्म - खाल या चमड़ा, धरेइ - धारण करता है।
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