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निशीथ सूत्र
जे भिक्खू णहच्छेयणगस्स उत्तरकरणं सयमेव करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ १६ ॥
जे भिक्खू कण्णसोहणयस्स उत्तरकरणं सयमेव करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ १७ ॥
भावार्थ १४. जो भिक्षु सूई का उत्तरकरण स्वयं करता है उसे तीक्ष्ण बनाता है, संवारता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्तं आता है। १५. जो भिक्षु कतरणी को स्वयं तेज बनाता है, उसका परिष्कार करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
१६. जो भिक्षु नखछेदनक को स्वयं तीक्ष्ण बनाता है, उसका परिष्कार करता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
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१७. जो भिक्षु कर्णशोधनक को स्वयं तीक्ष्ण बनाता है, उसका परिष्कार करता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। कर्कश वचन बोलने का प्रायश्चित्त
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जे भिक्खू लहुसगं फरुसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥
१८ ॥
कठिन शब्दार्थ - लहुसगं - लघुस्वक थोड़ा भी, जरा भी, फरुसं कठोर वचन, aas - बोलता है।
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भावार्थ - १८. जो भिक्षु जरा भी कठोर वचन बोलता है या जरा भी कठोर वचन बोलते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - भिक्षु को ऐसी वाणी कदापि नहीं बोलनी चाहिए, जिससे सुनने वाले के मन में पीड़ा उत्पन्न हो। यदि किसी को उसकी भूल के लिए उपालम्भ भी देना हो तो कर्कश या कठोर शब्दों में नहीं देना चाहिए, स्नेहपूर्ण, मृदु शब्दों में ही वैसा करना चाहिए।
मन, वचन एवं शरीर द्वारा किसी को भी कष्ट न पहुँचाना, अन्य द्वारा वैसा न कराना तथा करते हुए का समर्थन या अनुमोदन न करना अहिंसा का पूर्ण रूप अथवा समग्र परिपालन है। साधु इसके लिए कृतप्रतिज्ञ, कृतसंकल्प होता है। इसीलिए जरा भी कठोर वचन का प्रयोग करना उसके लिए अस्वीकार्य है, दोषपूर्ण है, प्रायश्चित्त योग्य है ।
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