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प्रथम उद्देशक - पात्र-संधान एवं बन्धन-विषयक प्रायश्चित्त
जे भिक्खू पायं अविहीए बंधइ बंधतं वा साइज्जइ॥४४॥ जे भिक्खू पायं एगेण बंधेण बंधइ बंधतं वा साइजइ।। ४५॥ जे भिक्खू पायं परं तिण्हं बंधाणं बंधइ बंधतं वा साइजइ॥ ४६॥
जे भिक्खू अइरेगबंधणं पायं दिवड्डाओ मासाओ परेण धरेइ धरतं वा साइज्जइ॥४७॥
कठिन शब्दार्थ - पायस्स - पात्र के, तुंडियं - टूटा हुआ भाग या छिद्र, तड्डेइ - स्थगन करता है - थेगली या कारी द्वारा जोड़ता है, परं तिण्हं - तीन से अधिक, तुडियाणंछिद्रों का, बंधइ - बांधता है, एगेण बंधेण - एक बंधन द्वारा, अइरेगबंधणं - तीन बंधनों से अधिक, दिवड्डाओ मासाओ - डेढ महीने से, परेण - अधिक, धरेइ - धारण करता है।
भावार्थ - ४१. जो साधु पात्र के एक छिद्र को थेगली या कारी द्वारा जोड़ता है अथवा जोड़ते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
४२. जो साधु पात्र के त्रुटित अंशों पर तीन से अधिक थेगली या कारी लगता है अथवा थेगली. लगाते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। .. (४३. जो साधु पात्र को अविधि से - अविवेकपूर्वक थेगली या कारी लगाता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।)
४४. जो साधु अविधिपूर्वक पात्र को बांधता है या बांधते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
४५. जो साधु पात्र को एक बंधन से बांधता है या बांधते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। - ४६. जो साधु पात्र को तीन से अधिक बंधनों से बांधता है या बांधते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ... ४७. जो साधु तीन बंधनों से अधिक बंधन युक्त पात्र को डेढ महीने से अधिक समय तक रखता है या रखते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ___विवेचन - पात्र साधु के औपधिक उपकरणों में मुख्य है, क्योंकि उसका आहार-पानी आदि लाने में निरन्तर उपयोग होता है। पात्र ऐसा हो, जिसमें आहार-पानी आदि सुरक्षित रूप में लाए जा सकें। वह त्रुटित, खण्डित या छिद्रित न हो। यही कारण है कि सूत्र संख्या ४१ में एक भी थेगली लगाना दोषपूर्ण, प्रायश्चित्त योग्य कहा गया है।
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