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निशीथ सूत्र
साधु तो अपने औपधिक आदि उपकरण गृहस्थों से याचित कर लेता है । इसलिए उसे यथेष्ट रूप में अत्रुटित पात्र ही प्राप्त हों, यह सदा संभव नहीं होता अथवा लेने के बाद सावधानी रखते हुए भी पात्र त्रुटित, छिद्रमय हो सकता है। अतः थेगली लगाए बिना वह उपयोग में नहीं आता। वैसी स्थिति में सूत्र संख्या ४२ में तीन से अधिक थेगली लगाने का निषेध किया गया है। क्योंकि वैसा अधिक थेगली युक्त पात्र उपादेय नहीं होता । उसमें गृहीत आहार- पानी सुरक्षित नहीं रह पाते ।
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इससे आगे सूत्र संख्या ४३ में अविवेक पूर्वक थेगली लगाना दोषपूर्ण कहा गया है।
की तरह सूत्र संख्या ४४-४६ में पात्र के बंधन लगाने या बांधने के संबंध में वर्णन है। टूटे हुए पात्र को मोटे धागे या पतली डोरी से बांधकर उपयोग योग्य बनाया जाता है, उसे बंधन कहा जाता है । उसमें भी वही क्रम ग्राह्य है, जो थेगली के संबंध में वर्णित हुआ है।
यदि अनिवार्य आवश्यकतावश तीन से अधिक बंधनों से युक्त पात्र रखना ही पड़े तो साधु उसे डेढ महीने से अधिक नहीं रख सकता ।
साधुओं की दैनन्दिन संयममूलक जीवनचर्या की पवित्रता की दृष्टि से उपर्युक्त व्यवस्थाक्रम का अनुसरण सर्वथा आवश्यक है।
वस्त्र - संधान एवं बन्धन- विषयक प्रायश्चित्त
जे भिक्खू वत्थस्स एगं पडियाणियं दे देंतं वा साइज्जइ ॥ ४८ ॥ जे भिक्खू वत्थस्स पर तिण्हं पडियाणियाणं देइ देतं वा साइज्जइ ॥ ४९ ॥ जे भिक्खू अविहीए व सिव्वइ सिव्वंतं वा साइज्जइ ॥ ५० ॥
जे भिक्खू वत्थस्सेगं फालियगठियं करेइ करेंतं वा साइजइ ॥ ५१ ॥ जे भिक्खू वत्थस्स परं तिहं फालियगंठियाणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ ५२ ॥ जे भिक्खू वत्थस्स एगं फालियं गंठेइ गंठेंतं वा साइज्जइ ॥ ५३ ॥ भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं फालियाणं गंठेइ, गंठेंतं वा साइज्जइ ॥ ५४ ॥ जे भिक्खू वत्थं अविहीए गंठेइ गंठतं वा साइज्जइ ॥ ५५ ॥ जे भिक्खू वत्थं अतज्जाएणं गहेइ गर्हतं वा साइज्जइ ॥ ५६ ॥
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