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निशीथ सूत्र
अलमप्पणो करणयाए सुहुममवि णो कप्पड़ जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स
वियर वियरंतं वा साइज्जइ ॥ ४० ॥
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चलने में सहारे के
कठिन शब्दार्थ - दंडयं - दण्ड लट्ठियं - लाठी - यष्टिका, अवलेहणियं - अवलेहनिका
कीचड़ को पौंछने के लिए शलाका (बांस की खापटी) विशेष-सींक, वेणुसूइयं - बांस
सूई ।
साधु दण्ड, लाठी, अवहेलनिका तथा बांस की सूई का अन्यतीर्थिक द्वारा, गृहस्थ द्वारा निर्मापन, संस्थापन, विषम समीकरण कराता है - यों अपने लिए जरा भी कराना साधु के लिए नहीं कल्पता । अपना सामर्थ्य जानता हुआ, स्मरण करता हुआ भी जो उपर्युक्त रूप में अपने उपकरण निर्मार्पित, संस्थापित आदि कराने हेतु दूसरे को देता है, देते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - उपकरण के औपधिक एवं औपग्रहिक के रूप में दो भेदों का पहले यथास्थान. विवेचन किया गया है। पात्र, वस्त्र आदि औपधिक उपकरण के अनतर्गत हैं, जिन्हें साधु सदैव अपने पास रखता है । दण्ड, यष्टिका आदि औपग्रहिक हैं, जिन्हें परिस्थिति जनित आवश्यकतावश रखा जाता है । वृद्धावस्था में चलने के लिए लाठी का सहारा आवश्यक होता है, इसलिए वृद्ध साधुओं के लिए लाठी रखना विहित है ।
वर्षा ऋतु में जमीन पर कीचड़ बहुत फैल जाता है । साधु नंगे पैर चलते हैं, पैरों में कीचड़ चिपक जाता है, जिससे चलने में कठिनाई होती है । अतः वैसी परिस्थिति में पैरों से कीचड़ निकालने के लिए अवहेलनिका रखने का विधान है।
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लिए प्रयुक्त लम्बा डण्डा, वर्षा ऋतु में पैरों में लगे
इन उपकरणों के परिष्करण में समर्थ होता हुआ भी साधु स्वयं वैसा न कर अन्य से वैसा कराता है अथवा वैसा कराते हुए का अनुमोदन करता है तो वह प्रायश्चित्त का भाग होता है।
पात्र - संधान एवं बन्धन- विषयक प्रायश्चित्त
जे भिक्खू पायस्स एक्कं तुंडियं तड्डेइ ततं वा साइज्जइ ॥ ४१ ॥ जे भिक्खू पायस्स परं तिण्हं तुड्डियाणं तड्डेइ तडेंतं वा साइज्जइ ॥ ४२ ॥ (जे भिक्खू पायं अविहीए तड्डेइ ततं वा साइज्जइ ॥ ४३ ॥ )
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