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प्रथम उद्देशक - समर्थ होते हुए भी अन्य द्वारा दण्डादि को.... ..
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करवाने के लिए, सुहुममवि - सूक्ष्म - अल्प या थोड़ा भी, कप्पड़ - कल्पता है, जाणमाणेजानता हुआ, सरमाणे - (अपना सामर्थ्य) स्मरण करता हुआ, वियरइ - देता है। ____ भावार्थ - ३९. जो साधु तुम्बिका-पात्र, काष्ठ-पात्र या मृत्तिका-पात्र अन्यतीर्थिक द्वारा, गृहस्थ द्वारा निर्मापित, संस्थापित या विषम को सम क़राता है - यों अपने लिए जरा भी कराता है वह साधु के लिए नहीं कल्पता। अपना सामर्थ्य जानता हुआ, स्मरण करता हुआ भी जो उपर्युक्त रूप में अपने पात्र निर्मापित, संस्थापित आदि कराने हेतु दूसरे को देता है, देते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - एक जैन साधु का जीवन सर्वथा स्वावलम्बी होता है। वह अपने सभी कार्य जब तक शारीरिक सामर्थ्य हो, अपने हाथ से करता है, साधु सर्वथा निष्परिगृही होता है। वह शास्त्रानुमोदित आवश्यक वस्त्र, पात्र आदि उपधि के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं रखता। वह • पात्र भी धातु के नहीं रख सकता, तुम्बिका, काष्ठ या मृत्तिका के पात्र रख सकता है। इन पात्रों से संबंधित निर्मापन, संस्थापन, परिष्करण, समीकरण आदि सभी कार्य वह स्वयं ही करता है। यदि वह वैसा करने में शारीरिक दृष्टि से समर्थ न हो तो शास्त्र मर्यादा के अनुसार उसमें अन्य का सहयोग ले सकता है।
इस सूत्र में स्वयं पात्र-विषयक निर्मापन, संस्थापन आदि पात्र-विषयक कार्य करने में समर्थ, सक्षम होता हुआ भी साधु यदि अन्य से वैसा करवाता है, वैसा करने के लिए सौंपता है, वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। क्योंकि इससे साधु का स्वावलम्बितापूर्ण जीवन बाधित होता है। __अलमप्पणो करणयाए.....साइज्जइ' इस सूत्रांश का आशय यह है कि - अपने काम में आवे वैसा योग्य बनाने के लिए, विधि जानता हो तथा स्मृति में हो तो दूसरे से कराना नहीं कल्पता है। यदि गृहस्थ शस्त्र आदि नहीं देता हो तथा खुद को काटना नहीं आता हो तो कराने में बाधा नहीं समझी जाती है, अल्प परिकर्म (आधाअंगुल से कम काटना) में प्रायश्चित्त नहीं आता है। इसी प्रकार आगे के सूत्र में भी समझना चाहिए। समर्थ होते हुए भी अन्य द्वारा दण्डादि को परिष्कृत कराने का प्रायश्चित्त - जे भिक्खू दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणुसूइयं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टावेइ वा संठवेइ वा जमावेइ वा
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