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.. निशीथ सूत्र
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१४. किसी भिक्षु द्वारा अनेक बार मासिक, द्विमासिक, त्रिमासिक, चातुर्मासिक एवं पंचमासिक - इन परिहार स्थानों में से किसी का प्रतिसेवन कर (अनेक बार) मायारहित आलोचना करने पर (क्रमशः) मासिक, द्विमासिक, त्रिमासिक, चातुर्मासिक और पंचमासिक तथा (अनेक बार) मायासहित आलोचना करने पर (क्रमशः) द्विमासिक, त्रिमासिक, चातुर्मासिक, पंचमासिक एवं षाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है। . १५. किसी भिक्षु द्वारा चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक अथवा पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक - इन परिहारस्थानों में से किसी परिहार स्थान का (एक बार) प्रतिसेवन कर मायारहित आलोचना करने पर (आसेवित परिहारस्थान के अनुसार क्रमशः) चातुर्मासिक या इससे कुछ अधिक तथा पंचमासिक या इससे कुछ अधिक एवं मायासहित आलोचना करने पर (क्रमशः) पंचमासिक या इससे कुछ अधिक और षाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है। ____ इसके पश्चात् मायासहित या मायारहित - किसी भी प्रकार से आलोचना करने पर वही षाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
१६. किसी भिक्षु द्वारा चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक अथवा पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक - इन परिहारस्थानों में से किसी परिहारस्थान का अनेक बार प्रतिसेवन कर मायारहित आलोचना करने पर (आसेवित परिहारस्थान के अनुसार क्रमशः) अनेक बार चातुर्मासिक या इससे कुछ अधिक एवं पंचमासिक या इससे कुछ अधिक तथा मायासहित आलोचना करने पर (क्रमशः) अनेक बार पंचमासिक या इससे कुछ अधिक और पाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
इसके उपरान्त मायासहित या मायारहित - किसी भी प्रकार से आलोचना करने पर वही पाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - इन सूत्रों में अपने द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप में सेवित दोषों की आलोचना करने के संदर्भ में निष्कपटता और सकपटता विषयक वर्णन हुआ है।
आलोचना शब्द 'आ' उपसर्ग, भ्वादिगण में पठित आत्मनेपदी तथा चुरादिगण में पठित उभयपदी 'लोच्' धातु एवं 'ल्युट्' प्रत्यय के योग से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ (दोषों का) सम्यक् रूप में, विशदतापूर्वक वीक्षण करना, सर्वेक्षण करना या निरीक्षण करना, गुरु के समक्ष अपनी त्रुटि या भूल को स्वीकार करना है।
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