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निशीथ सूत्र
में एक बात विशेष रूप से कही गई है कि वे तत्काल ग्राह्य नहीं होते। कम से कम आधा . . घण्टा या मुहूर्त व्यतीत होने पर असंदिग्ध अचित्तता मानी जाती है।
निरवद्य, ऐषणीय, सर्व दोष विनिर्मुक्त आहार-पानी लेते समय जरा भी शंकितावस्था न रहे, यह आवश्यक है। क्योंकि जहाँ शंका और संशय होता है, वहाँ सत्य, तथ्य अस्पष्ट रहता है तथा दोष की संभावना रहती है।
. स्वयं को आचार्य गुणोपेत कहने का प्रायश्चित्त ।
जे भिक्खू अप्पणो आयरित्ताए लक्खणाई वागरेइ वागरेंतं. वा साइज्जइ॥ २५१॥
कठिन शब्दार्थ - आयरित्ताए - आचार्य के, लक्खणाई - लक्षणों से, वागरेइ - व्याकरोति - विशेष रूप से कहता है - अन्यथा कहता है।
__ भावार्थ - २५१. जो भिक्षु स्वयं को आचार्य लक्षण संपन्न बतलाता है अथवा बतलाने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। - विवेचन - भिक्षु सदैव आत्मस्थ रहे। अपनी संभावित-असंभावित विशेषताओं का कदापि ख्यापन न करे। उससे आत्मगुणों में हीनता उत्पन्न होती है। अपने आपको व्यक्ति तभी विशिष्ट रूप में व्यक्त करने का प्रयास करता है जब उसके मन में प्रदर्शनात्मक महत्ता का भाव जागता है। किसी भिक्षु को अपने दैहिक लक्षण, स्वरूप इत्यादि को देख कर भान हो कि स्वयं में वे विशेषताएँ विद्यमान हैं, जो आचार्य में होती हैं। अथवा भ्रमवश उसे ऐसी असत् प्रतीति होती हो कि वह आचार्य के लक्षणों से युक्त है या सामुद्रिक शास्त्र आदि के आधार पर अपनी दैहिक रेखा, तिल, चक्र, अंकुश, शंख इत्यादि देखकर उसके मन में भाव आ जाए कि मेरे ये लक्षण तो आचार्य के सदृश हैं तो वह अपने आपको इस रूप में कदापि व्यक्त न करे, न वैसा दावा ही करे वरन् स्वयं को संयमानुप्राणित करता हुआ आत्मस्थ रहे।
___ यदि कोई ऐसा प्रसंग हो जब स्थविर या गीतार्थ भिक्षु किसी साधु को आचार्य पद पर मनोनयन कर रहे हों, वह यदि अयोग्य हो तो धर्मशासन के हित में स्वयं या अन्य द्वारा एतद्विषयक जानकारी दी जा सकती है किन्तु फिर भी निर्णय हेतु दवाब या दावा नहीं किया जा सकता। ___इस प्रकार अकारण आचार्य लक्षण गुणसंपन्न बतलाना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
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