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सप्तदश उद्देशक - तत्काल धोया पानी (धोवन) लेने का प्रायश्चित्त
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गर्म आहार-पानी साधु को नहीं लेने चाहिए। कुछ समय बाद उष्णता कम होने पर ही वे ग्राह्य हो सकते हैं।
तत्काल धोया पानी (धोवन) लेने का प्रायश्चित्त __जे भिक्खू उस्सेइमं वा संसेइमं वा चाउलोदगं वा वारोदगं वा तिलोदगं वा तुसोदगं वा जवोदगं वा आयामं वा सोवीरं वा अंबकंजियं वा सुद्धवियर्ड वा अहुणाधोयं अणंबिलं अपरिणयं अवक्कंतजीवं अविद्धत्थं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ॥ २५०॥ ___कठिन शब्दार्थ - उस्सेइमं - आटे के लिप्त हाथ या बर्तन का धोवण, संसेइमं - उबाले हुए तिल, पत्र-शाक आदि का धोया हुआ जल, चाउलोदगं - चावलों का धोवण, वारोदगं - गुड़ आदि खाद्य पदार्थों के घडे (बर्तन) का धोया जल, तिलोदगं - तिलों का धोवण, तुसोदगं - भूसी का धोवण या तुष युक्त धान्यों के तुष निकालने से बना धोवण, जवोदगं - जौ का धोवन, आयामं - अवश्रावण - उबाले हुए पदार्थों का पानी, सोवीरं - कांजी का जल, गर्म लोहा, लकड़ी आदि डुबाया हुआ पानी, अंबकंजियं - खट्टे पदार्थों क धोवण या छाछ की आछ, सुद्धवियडं - हरड बहेडा राख आदि पदार्थों से प्रासुक बनाय गया जल अथवा उष्ण पानी, अहुणाधोयं - तत्काल धोया हुआ, अणंबिलं - रस आम्ल नहीं हुआ हो - बदला नहीं हो, अपरिणयं - शस्त्र परिणत न हुआ हो, अवक्कंतजीवं - जीव उत्पन्न नहीं हुए हों, अविद्धत्थं - पूर्ण रूप से अचित्त नहीं हुआ हो।
. भावार्थ - २५०. उत्स्वेदित, संस्वेदित, चावलोदक, वारोदक, तिलोदक, तुषोदक, यवोदक, ओसामण, सौवीर, आम्रकांजी एवं शुद्ध उष्ण जल जो कि तत्काल धोने से प्राप्त हो, विपरीत रस युक्त न हुआ हो, शस्त्र परिणत न हो, जीव अपगत न हुए हों, वर्ण-रस आदि विपरीत न हुए हो अर्थात् पूर्ण रूप से अचित्त नहीं हुआ हो तो ऐसे जल को जो भिक्षु ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - भिक्षु के लिए सर्वथा अचित्त पानी गृहीत करने का नियम है। सचित्त सर्वथा निषिद्ध है। यह अहिंसा व्रत की परिपालना तथा जीवविराधना रहित चर्या का महत्त्वपूर्ण भाग है। खाद्य पदार्थों के साथ जल का बहुत महत्त्व है। उसे लेने में भिक्षु कहीं भी भूल न कर
जाय, इस दृष्टि से धोवन रूप अचित्त जल के संदर्भ में वर्णन हुआ है। वे ग्यारह प्रकार के । बतलाए गए हैं। ये ऐसे जल हैं, जो क्रिया-प्रक्रिया द्वारा अचित्त हो जाते हैं किन्तु इनके संदर्भ
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