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निशीथ सूत्र
सीढ़ी आदि द्वारा लाते हुए असावधानीवश नीचे गिर जाना भी आशंकित है, जिसके परिणाम स्वरूप जहाँ व्यक्ति गिरा हो, वहाँ स्थित सूक्ष्म जीवों की हिंसा भी संभावित है। अत एव इसे प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
प्रतिपादन का तात्पर्य यह है कि प्रदाता भिक्षु को जो भी कल्प योग्य वस्तु दे, उसमें वह सहजता का अनुसरण करे। उसमें ऐसा कुछ भी न जोड़े जो पारलौकिक, ऐहिक दोनों दृष्टियों से अयान्य, अनुचित हो।
कोष स्थित आहार ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू कोट्टियाउत्तं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उक्कुज्जिय णिक्कुज्जिय ओहरिय देजमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइजइ॥ २४२॥
कठिन शब्दार्थ - कोट्ठियाउत्तं - कोष्ठायुक्त - कोठे में रखा हुआ, उक्कुजिय - ऊँचा होकर, णिक्कुजिय - नीचे झुक कर, ओहरिय - अवहत कर - निकाल कर।।
भावार्थ - २४२. जो भिक्षु कोठे में स्थित अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार को ऊंचा हो कर या नीचे झुक कर निकाल कर देते हुए से लेता है अथवा लेते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - खाद्य पदार्थ रखने हेतु विशेष प्रकार के कोठों का प्रयोग होता रहा है। प्राचीन काल में प्रायः ऐसे कोठे मिट्टी, गोबर आदि से बनाए जाते थे, फिर पत्थर, धातु आदि के भी बनाए जाने लगे। कुछ कोटे ऊंचे होते थे, कुछ कोठे नीचे। वहाँ से ले कर आहार देने में विशेष श्रम करना पड़ता है। देने वाले को परेशानी होती है। पैरों के बल ऊंचा हो कर आहार निकालते समय जरा-सी असावधानी होते ही वह जमीन पर गिर सकता है। वैसा होने से उसे स्वयं को पीड़ा होती है। गिरते समय यदि भूमि पर स्थित छोटे जीव दब आएँ तो उनकी जो विराधना हो सकती है। इत्यादि आशंकाओं को देखते हुए उस प्रकार से देते हुए व्यक्ति से आहार लेना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
आचारांग सूत्र में भी इस प्रकार दिए जाते हुए आहार का निषेध किया गया है ।
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• आचारांग सूत्र २-१-७
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