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सप्तदश उद्देशक - उद्भिन्न-निर्भिन्न आहार ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त
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उद्भिन्न-निर्मिन आहार ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू मट्टिओलित्तं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उब्भिंदिय णिब्भिंदिय देजमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइजइ॥ २४३॥ __ कठिन शब्दार्थ - मट्टिओलितं - मृत्तिका से लिप्त, उब्भिंदिय - उद्भिन्न कर - बल पूर्वक तोड़कर, णिभिंदिय - निर्भिन्न कर - सर्वथा हटाकर।
भावार्थ - २४३. जो भिक्षु मिट्टी के लेप से युक्त पात्र विशेष में रखे अशन-पानखाद्य-स्वाध रूप आहार को लेप तोड़ कर, हटा कर दिए जाने पर ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - खाद्य पदार्थों को विशेष रूप से सुरक्षित रखने हेतु, दूषित हवा, पानी आदि के प्रभाव से बचाने हेतु ऐसे पात्रों में रखे जाने की प्रथा रही है, जिनको ऊपर से मृत्तिका के लेप द्वारा बंद किया जाता था अथवा पात्र पर ढक्कन लगाकर पात्र एवं ढक्कन के छेद को मिट्टी द्वारा उपलिप्त कर दिया जाता था। कुछ देर बाद वह लेप इतना पक्का हो जाता था कि उसे तोड़ कर हटाना पड़ता था। इस प्रकार के पात्रों से लेप को बलपूर्वक तोड़ कर उसे सर्वथा हटा कर दिया जाता आहार भिक्षु द्वारा प्रतिगृहीत किया जाना - लिया जाना इस सूत्र में प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। ___आचारांग सूत्र० एवं दशवैकालिक सूत्र में भी ढक्कन को हटाकर दिया जाता आहार भिक्षु द्वारा स्वीकार किया जाना दोष युक्त बतलाया गया है। .. इस सूत्र में प्रयुक्त 'उभिदिय उभिन्न, णिभिदिय - निर्भिन्न' शब्दों से यह प्रकट होता है कि पात्र पर लगे मृत्तिका लेप को हटाने में बड़ा बल लगाना होता था। वैसा करने में देने वाले को परेशानी होती है। लेप को तोड़ने में, ढक्कन को दूर करने में ज्ञात-अज्ञात रूप में जीव-विराधना भी आशंकित होती है। व्यावहारिक दृष्टि से भी यह उपर्युक्त प्रतीत नहीं होता। . .. यहाँ पर सभी प्रकार के ढक्कनों के समाविष्ट होने के कारण ही उनके खोलने पर त्रस स्थावर जीवों की विराधना होने का कथन है। केवल मिट्टी से लिप्त में अग्नि आदि सभी त्रस स्थावर जीवों की विराधना संभव नहीं है। अतः 'मट्टिओलित शब्द होते हुए भी उपलक्षण
o आचारांग सूत्र २-१-७
• दशवैकालिक सूत्र ५-१
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