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________________ सप्तदश उद्देशक - मालोपहृत आहार ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त विवेचन समान समाचारी एवं कल्पयुक्त साधुओं का जीवन पारस्परिक सहयोग के आधार पर ही भलीभाँति चलता है, वे शुद्ध व्रताचार के पालक होते हैं । दोष युक्त आहार आदि ग्रहण नहीं करते और भी उनके चर्यानुगत कार्य निरवद्य एवं शुद्ध होते हैं। अतः उनको ठहराने में हानि ही क्या है, उन्हें क्यों न ठहराया जाय ? . उदाहरणार्थ कोई साधु उपाश्रय में रुका हो । संयोगवश यदि कोई अन्य साधु, जिसका आचार उसके समान हो, वहाँ आ जाए और ठहरने के लिए स्थान मांगे, वैसी स्थिति में यदि पहले ठहरा हुआ साधु स्थान होते हुए भी उसे ठहरने की स्वीकृति न दे तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। यही बात साध्वी के संबंध में लागू होती है । उसे चाहिए कि वह समान आचार युक्त साध्वी को, उपाश्रय में यदि अवकाश हो तो ( उसे) ठहरने की स्वीकृति दे । वैसा न करना दोष युक्त है। इस प्रकार की प्रवृत्ति पारस्परिक सहयोग पर आधारित सदृश आचार युक्त गण साधु-साध्वी संघ की व्यवस्था में हानिप्रद होती है। लोक दृष्टि या व्यवहार में भी स्थान न देना अशोभनीय प्रतीत होता है । वैसा करने वाले साधु या साध्वी के प्रति लोगों में आदर कम होता है । - •मालोपहत आहार ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू मालोहडं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ २४१ ॥ कठिन शब्दार्थ- मालोहडं - मालोपहृत घर के ऊपर की मंजिल में स्थित प्रकोष्ठ Jain Education International में रखा हुआ । भावार्थ २४१. जो भिक्षु घर के ऊपर की मंजिल में विद्यमान प्रकोष्ठ कमरे में रखे हुए (नीचे) ला कर दिए जाते हुए अशन-पान - खाद्य-स्वाद्य रूप आहार को लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन घर के मंजिल के ऊपरी कमरे में रखे हुए आहार को सीढियों से या निसरनी आदि द्वारा नीचे लाकर दिया जाना अव्यावहारिक है । क्योंकि भिक्षु को सहज रूप में आहार देना समुचित कहा गया है। ऊपर के माले में स्थित आहार को नीचे ला कर देना अनेक दृष्टियों से अनुपयुक्त है। इससे देने वाले की भिक्षु के प्रति मोहासक्ति प्रतीत होती है । ३७१ - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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