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षोडश उद्देशक - कदाग्रही भिक्षु के साथ आदान-प्रदान विषयक प्रायश्चित्त
कठिन शब्दार्थ - वुग्गहवक्कंताणं - व्युद्ग्रहव्युत्क्रांत - जो क्लेश में पड़ा हुआ है, क्लेश से उद्विग्न चित्त बन गया है, सज्झायं सूत्रार्थ की वाचना ( स्वाध्याय) । भावार्थ १७. जो भिक्षु क्लेश से उद्विग्न व भ्रान्तचित्त भिक्षु को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है।
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१८. जो भिक्षु क्लेश से उद्विग्न व भ्रान्तचित्त भिक्षु से अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि लेता है अथवा लेने वाले का अनुमोदन करता है।
१९. जो भिक्षु क्लेश से उद्विग्न व भ्रान्तचित्त भिक्षु को वस्त्र, पात्र, कंबल और पादप्रोंछन देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है ।
२०. जो भिक्षु क्लेश से उद्विग्न व भ्रान्तचित्त भिक्षु से वस्त्र, पात्र, कंबल एवं पादप्रोंछन लेता है अथवा लेने वाले का अनुमोदन करता है।
२१. जो भिक्षु क्लेश से उद्विग्न व भ्रान्तचित्त भिक्षु को शय्या देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है।
२२. जो भिक्षु क्लेश से उद्विग्न व भ्रान्तचित्त भिक्षु से शय्या लेता है अथवा लेने वाले अनुमोदन करता है ।
उपाश्रय में
२३. जो भिक्षु क्लेश से उद्विग्न व भ्रान्तचित्त भिक्षु के आवास-स्थान प्रवेश करता है या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है ।
२४. जो भिक्षु क्लेश से उद्विग्न व भ्रान्तचित्त भिक्षु को सूत्रार्थ वाचना है अथवा देने वाले का अनुमोदन करता है।
२५. जो भिक्षु क्लेश से उद्विग्न व भ्रान्तचित्त भिक्षु से सूत्रार्थ वाचना है या लेने वाले का अनुमोदन करता है।
इस प्रकार उपर्युक्त अविहित कार्य करने वालें भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
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३५१.
विवेचन - इन सूत्रों में प्रयुक्त 'वुग्गह'' (व्युद्ग्रह) शब्द 'वि' तथा 'उत्' उपसर्ग एवं 'ग्रह' धातु के योग से बना है। 'विशेषेण ऊर्ध्व ग्राहयति, नयति सन्तुलनं विकरोति इति व्युद्ग्रह' जो व्यक्ति को ' आपे से बाहर' ले जाता है, उसके मानसिक संतुलन को विकृत कर देता है, उसे व्युद्ग्रह कहा जाता है। यह कदाग्रह का वाचक है।
जो दुराग्रही भिक्षु सूत्र से विपरीत कथन या विपरीत आचरण करके कलह करते हैं या
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स्वाध्याय देता
स्वाध्याय लेता
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