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निशीथं सूत्र
गच्छ का परित्याग कर स्वच्छन्द विचरते हैं, उनके लिये सूत्र में "वुग्गहवक्कंताण" शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ ऐसे साधुओं की संगति करने का, उनसे सम्पर्क करने का या उनके साथ आदान-प्रदान आदि व्यवहार करने का प्रायश्चित्त कहा गया है। . ..
कदाग्रही व्यक्ति न अपना श्रेयस् करता है और न दूसरों के लिए ही लाभप्रद होता है। प्रत्येक कार्य में धृति, मन:संतुलन एवं स्थिरता की आवश्यकता होती है। __भिक्षु तो कलह, कदाग्रह, आक्रोश से सदैव वियुक्त रहे, यह सर्वथा आवश्यक है। ऐसा होने से ही वह अपने लक्ष्य की दिशा में गतिशील रह सकता है। कदाग्रही भिक्षु के साथ अशन, पान, वस्त्र, पात्र आदि सामग्री के लेन-देन को यहाँ प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, क्योंकि इससे संपर्क बढता है, जो लोक व्यवहार में अच्छा नहीं लगता तथा तदनुरूप प्रवृत्ति भी विस्तार पा सकती है। ____कदाग्रही अथवा क्लेश से उद्विग्न चित्त वाले को सूत्रार्थ वाचना देना भी अनुपयुक्त है। क्योंकि वैसा व्यक्ति विनयादि उत्तम गुणयुक्त नहीं होता। वैसे भिक्षु के साथ रहना भी प्रायश्चित्त योग्य है। 'संसर्गजा दोषगुणाः भवन्तिा के अनुसार कदाग्रह जैसे दुर्गुणयुक्त पुरुष का साहचर्य लाभप्रद तो किसी भी रूप में है ही नहीं, उससे हानि की ही आशंका है।
नीतिशास्त्र में बहुत ही सुन्दर कहा है - दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययाऽलंकृतोऽपि सन्।
मणिना भूषितः सर्पः किमऽसौ न भयंकरः॥ : दुर्जन - कदाग्रह, कलह, वैमनस्यादि दूषित प्रवृत्तियुक्त व्यक्ति यदि विद्वान् भी हो तो वह त्यागने योग्य है। मणिरत्न विभूषित सर्प क्या भयप्रद नहीं होता?
निषिद्ध क्षेत्रों में विहरण विषयक प्रायश्चित जे भिक्खू विहं अणेगाहगमणिज्जं सइ लाढे विहाराए संथरमाणेसु जणवएसु विहारपडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ॥ २६॥
जे भिक्खू विरूवरूवाई दसुयायतणाइं अणारियाई मिलक्खूई पच्चंतियाई सइ लाढे विहाराए संथरमाणेसु जणवएसु विहारपडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइजइ॥ २७॥
कठिन शब्दार्थ - विहं - वीथि - रास्ता, अणेगाहगमणिज्ज - अनेक दिनों में पार किए जाने योग्य - लम्बा रास्ता, सइ लाढे - अन्य राष्ट्र के होते हुए भी, संथरमाणेसु -
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