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निशीथ सूत्र
१. नित्यवासनिक - नित्यप्रयोज्य २. स्नान में प्रयोग किया जाने वाला, .३. उत्सव आदि में प्रयोजनीय एवं ४. राजदरबार आदि में उपयोग में लेने योग्य।
विवेचन - भिक्षु अपने अनिवार्य उपयोग की सामग्री - पात्र, वस्त्र आदि याचित कर लेता है अथवा गृहस्थ द्वारा निवेदित कर दिए जाने पर स्वीकार करता है। बशर्ते वे साधुचर्या के नियमानुसार स्थापित, अभिहत, क्रीत, अनिःसृष्ट, औद्देशिक, पश्चात् कृत आदि दोषों से रहित हों।
इस सूत्र में याचित और आमंत्रित दोनों ही रूप में प्राप्यमान वस्त्र को भलीभाँति पूछताछ, जाँच-पड़ताल या गवेषणा किए बिना लेना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। वैसा किए बिना लेने से ज्ञात-अज्ञात रूप में इन दोषों में से किसी का लगंना आशंकित है। क्योंकि विशेष भक्ति के कारण गृहस्थ भावुकतावश सुपात्र दान की उत्कृष्ट इच्छा के कारण जानेअनजाने ऐसे वस्त्र के लिए भी साधु को आमंत्रित कर सकता है, जिनमें इन दोषों में से किसी दोष के लगने की संभावना हो। __यहाँ गृहस्थ द्वारा दीयमान वस्त्र चार प्रकार के वर्णित हुए हैं। उनमें सर्व सामान्य वस्त्र तो वे हैं, जिन्हें गृहस्थ रोजमर्रा के उपयोग में लेता हो। कुछ ऐसे वस्त्र होते हैं, जिन्हें अल्प समय के लिए (स्नानादि में) उपयोग में लिया जाता है। पारिवारिक, सामाजिक उत्सव या राजसभा आदि में प्रयोजनीय वस्त्र भी यहाँ उल्लिखित किए गए हैं।
ये वस्त्र विशेष प्रकार के या बहुमूल्य होते थे। इन वस्त्रों के वर्णन से देश की तात्कालिक समृद्धि पूर्ण स्थिति का आभास होता है। उस समय अवसर के अनुरूप गृहस्थ वस्त्रों का चयन एवं उपयोग करते थे। यह तभी संभव है जब वित्तीय स्थिति अच्छी हो।
श्रद्धाशील गृहस्थ यह चाहता है कि वह उत्तमोत्तम वस्तु साधु को दे, पुण्यार्जन करे। इसलिए बहुमूल्य वस्त्रों को भी लेने हेतु निमंत्रित करता है। यह श्रद्धामूलक पक्ष है। गवेषणा पूर्वक लेना विवेक पक्ष है। श्रद्धा और विवेक दोनों समन्वित या संगत हों, तभी तद्गर्भित कार्य उपादेय होता है।
वस्त्र के कथन से अन्य भी पात्र आदि उपकरणों के संबंध में गवेषणा करने की आवश्यकता और प्रायश्चित्त समझ लेना चाहिए।
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