________________
पंचदश उद्देशक - विभूषार्थ उपधि धारण- प्रक्षालन प्रायश्चित्त
विभूषार्थ देह-सज्जा विषयक प्रायश्चित्त
जे भिक्खू विभूसापडियाए अप्पणो पाए आमज्जेज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥ १०१ ॥
एवं उद्देग गमेण णेयव्वं जाव जे भिक्खू विभूसावडियाए गामाणुगामं दूइज्जमाणे अप्पणो सीसदुवारियं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ १०२ - १५६॥
भावार्थ - १०१. जो भिक्षु विभूषा के लिए अपने पांवों को आमर्जित-प्रमार्जित करेएक बार या बार-बार मार्जन करे अथवा आमर्जन- प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे ।
१०२-१५६. इसी प्रकार (पूर्व की भाँति सज्जा विषयक) यावत् ग्रामानुग्राम विचरण कर हुए अपने सिर (मस्तक) को ढकता है या ढकने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है । इत्यादि समस्त वर्णन पूर्ववत् ज्ञातव्य है, यहाँ योजनीय है।
विभूषार्थ उपधि धारण-प्रक्षालन प्रायश्चित्त
जे भिक्खू विभूसापडियाएं वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं धरेइ धरेंतं वा साइज्जइ ॥ १५७॥
जे भिक्खू विभूसापडिय़ाए वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं धोवेइ धोवेंतं वा साइज्जइ । तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥ १५८ ॥
॥ णिसीहऽज्झयणे पण्णरसमो उद्देसो समत्तो ॥ १५ ॥
भावार्थ - १५७. जो भिक्षु विभूषा के निमित्त से वस्त्र, पात्र, कंबल या पादप्रोंछन या अन्य कोई उपकरण धारण करता है अथवा धारण करने वाले का अनुमोदन करता है।
१५८. जो भिक्षु विभूषा के निमित्त से वस्त्र, पात्र, कंबल एवं पादप्रोंछन या अन्य कोई उपकरण धोता है अथवा धोने वाले का अनुमोदन करता है।
ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार उपर्युक्त १५८ सूत्रों में किए गए किसी भी प्रायश्चित्त स्थान का, तद्गत दोषों का सेवन करने वाले भिक्षु को उद्घातिक परिहार- तप रूप लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
Jain Education International
३४१
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org